Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम । का० २०, सू०१७ अथास्य लक्षणशेष संख्यापरिमाणमाह-- [चत्र १७]-आवश्यकाविरोध्यर्थः स्वल्पपात्रः सनिर्गमः।
पञ्चसंख्योऽपकर्षेण दशसंख्यः प्रकर्षतः ॥२०॥ एकस्मिन्नङ्क तावदवान्तगणि बहूनि कार्याणि न निबन्धनीयानि । यत्रापि निबध्यन्ते तत्राप्यावश्यकस्य सन्ध्यावन्दन-भोजनादेविरोधेन । सुष्टु कार्योपयोगीनि अल्पानि संख्यया पात्राणि यत्र । तत्रोत्कर्षे दश, मध्यमगत्या अष्टौ, अपकर्षण चत्वारि पन्च वा पात्राणि । आधिक्ये तु पात्रसम्मनैव अभिनयचतुष्टयं प्रेक्षकाणामविभावनीयं स्यात् । प्रभुतपुरुषसाध्य पर्वतोद्धरणादि न रङ्ग दर्शनीयमित्युक्तं भवति । समवकारादौ तु बहुपात्रत्वेऽपि विशेषोपादानान्न दोषः । सनिर्गमः' इति निगमो रङ्गप्रविष्टपात्राणां स्वकार्याणि कृत्वा निष्क्रमो जवनिकया तिरोधानम् । पर अधिकसे-अधिक दस अंक तक रखे जा सकते हैं। इस प्रकार नाटकोंका कमसे-कम पांच भौर अधिकसे-अधिक दस अंकोंके रखनेका विधान किया गया है। वह सब विधान भवस्थामोंको विभाजनका प्राधार मानकर ही किया गया है। इस बात का प्रतिपादन प्रगली कारिकामें करते हैं
अब मडके लक्षणके शेष भाग और संख्या-परिमाणको कहते हैं
[सूत्र १७] -मावश्यक [सन्ध्या-वन्दन-भोजन प्रादि कार्यों में बाधा न डालनेवाला जिसका [अभिनेय] अर्थ है [इस प्रकारका], सुन्दर और परिमिति-संख्या वाले पात्रोंसे युक्त, तथा [अन्तमें सारे पात्रोंके] बाहर चले जाने [को दिखलाने वाला कमसे-कम पांच संख्या और अधिकसे-अधिक वस संख्या युक्त अङ्क होता है । [यह १९-२० दो कारिकानोंको मिला कर प्रडका लक्षण बनता है] । २० ।
एक अङ्कमें बोचके बहुतसे कार्योका समावेश नहीं करना चाहिए। जहाँ कहीं करना ही पड़े वहां भी प्रावश्यक सन्ध्या-वन्दन भोजनादि कार्योमें बाधा न पाने वेना चाहिए। सुष्छु, सुन्दर अर्थात् कार्यमें उपयोगी भोर संख्याको दृष्टिसे 'अल्प'-कम-पात्र, जिसमें हो [बह 'स्वल्पात्र' हा] । इसमें [अर्थात् प्रत्येक प्रमें अधिकसे-अधिक बस, मध्यम रूपमें पाठ पौर और कमसे-कम चार या पांच पात्र होने चाहिए। अधिक [संख्या होनेपर तो पात्रोंकी भीड़-भाड़के कारण ही चारों प्रकारके अभिनय देखनेवालोंको बेक तरहसे नहीं बोल सकेंगे। इसका यह प्राशय भी हुमा कि बहुत अधिक पुरुषोंके द्वारा साध्य पर्वतका उठाना प्रादि कार्य रङ्गभूमिमें नहीं दिखलाने चाहिए। समवकार प्रादिमें तो अधिक पात्र होनेपर भी विशेष [अभिनयों का ग्रहण हो सकने [में बाधा न होने से दोष नहीं होता है। [अर्थात् समवकार माविमें बससे अधिक पात्र भी अङ्क में रखे जा सकते हैं] । 'सनिर्गम', अर्थात् रङ्गमें पाए हए पात्रोंका अपने कार्योको करके बाहर चला जाना अर्थात् जवनिकाके पीछे चला जाना [जिसमें हो वह अङ्क कहलाता है।
समवकारादिमें दशसे अधिक पात्र होनेपर भी 'विशेषोपादान्न दोषः' अभिनयके विशेष रूपोंका ग्रहण करने में कोई दोष नहीं होता है यह बात जो यहाँ कही है उसका कारण यह है कि समवकारमें देवतामों अथवा दैत्यादिका मभिनय दिखलाया जाता है इसलिए उसका
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