Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० २२, सू०१६ ] प्रथमो विवेकः
नगररोधोऽप्येवमेव, सेनायाः, पर्णकुटी-यन्त्र-सुरङ्गादिदानव्यापाराणां च बाहुल्यात् । राज्य-देशादिभ्रंशोऽपि पतन-मरणादिसम्भवात् तथैव । रतमिति
आलिङ्गन चुम्बनादि ब्रीडादायित्वादेवमेव । तेन तदनुकूलानि रहःप्रवेश-वक्रोक्त्यादीन्यकेऽपि दर्श्यन्ते । मृत्युः प्राणनिर्गम एव । समीकं हस्त-पादादिच्छेद एव । तेन नागानन्दे जीमूतवाहनस्य क्षणभाविनां इन्द्रियवैकल्यादीनां, रघुविलासे च रावणस्य विभीषणं प्रति साटोपं चन्द्रहासग्रहणस्याङ्कऽप्यविरोधः । आदिशब्दादपरमपि प्रभूतकाल-क्लेशसाध्यं ब्रीडातङ्कदायि च गृह्यते। आदिशब्देन प्रवेशक-श्रङ्कास्यचूलिकाङ्कावताराणां ग्रहणमिति ॥२२॥
नाटक में 'दूरान्वयान' अर्थात अधिक लम्बी यात्राको अङ्कों द्वारा दिखलानेका निषेध किया गया है । इसका कारण यह है कि अधिक लम्बी यात्रा में रास्ते में ठहरने के लिए पड़ावों, उनमें होने वाले भोजन, पान शयन सभी व्यापारोंको दिखलाना आवश्यक होगा। वह सब एक तो अत्यन्त नीरस हो जायगा और दूसरे लम्बा भी अधिक हो जायगा । इसलिए नाटकमें उसको प्रत्यक्ष दिखलानेका निषेध कर अर्थोपक्षपकोंके द्वारा सूचित मात्र करने का विधान किया गया है। किन्तु 'समवकार' प्रादि रूपकभेदोंमें दूराध्वयानका अङ्कोंमें दिखलानेका भी निषेध नहीं किया गया है। इसका कारण यह है कि 'समवकार' में देवादिके चरित्रका प्रदर्शन किया जाता है । उन देवतामोंमें माकाश-गमनकी सामर्थ्य होती है अतः उसमें बीचके पड़ाव, आदि सम्बन्धी व्यापारोंके दिखलानेकी अावश्यकता न रहने से न नीरसता पाती है और न दीर्घता।
__नगरावरोध भी इसी प्रकार [नीरस व्यापारोंसे पूर्ण होनेके कारण दिखलाया नहीं जा सकता है। [क्योंकि उसमें सेनाके [ठहरनेकेलिए] पर्णकुटी [डेरा या झोंपड़ी] यन्त्र सुरंग लगाने प्रादि व्यापारोंको बाहुल्य होता है। राज्य-देशादिका विप्लवभी पतन-मरण मावि [अनेक प्रकारके नीरस और अशोभनीय व्यापारों की सम्भावनासे पूर्ण होनेके कारण उसी प्रकारका [अर्थात् नाटकमें न दिखलाकर केवल सूचित करने योग्य] है। सम्भोग भी मालिङ्गन-चुम्बन प्रादि लज्जाजनक [व्यापारसे परिपूर्ण होनेके कारण उसी प्रकारका [अर्थात् रङ्गमनपर न दिखलाने योग्य] है। इसलिए उस [सुरत-सम्भोग] केलिए अनुकूल एकान्त-स्थानमें प्रवेश और वक्रोक्ति प्रावि तो प्रकोंमें भी दिखलाए जाते हैं [किन्तु उसके मागे जहांसे मालिङ्गन-चुम्बनादि प्रारम्भ होता है उस भागको वीडादायक होनेसे पोंमें रङ्गमञ्चपर दिखलाना निषिद्ध माना गया है] । मृत्युसे प्राण निकल जानेका ही प्रहण होता है। 'समीक' का अर्थ हाथ-पैर प्राविका काटना ही है । इसलिए नागानन्दमें जीमूतवाहनका कुछ समय होने वाला इन्द्रिय-वैकल्य आदि, और रघुविलासमें रावणका विभीषण के प्रति कोष कारके तलवारका प्रहरण मृत्यु अर्थात् प्राविमोचन अथवा समीक अर्थात् हाथ-पैरके छेवन तक न पहुंचनेसे, दिखलाया जानेपर भी दोषाधायक नहीं है । [समीकावि' में प्रयुक्त] 'प्रादि' शब्बसे प्रभूत काल और प्रभूत क्लेशसे साध्य तथा ग्रीडादायक प्रादि अन्य अर्थोंका भी प्रहण होता है। [और विष्कम्भकादिभिः में प्रयुक्त] 'मादि' शब्दसे प्रवेशक, अङ्कास्य, चूलिका और भावतार [रूप शेष चारों अर्थोपक्षेपको] का भी ग्रहण होता है। अर्थात् सूख्य अर्थ को इन पाँच प्रकारके अर्थोपक्षेपकोंके द्वारा ही सूचित करना चाहिए । साक्षात रूपसे नहीं दिखलाना चाहिए] ॥२२॥
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