Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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प्रथमो विवेकः
[ ६१
"ईदिसम्स कन्नगारयणस्स ईदिये य्येव वरे अहिलासेण भोदव्वं । [ईदशस्य कन्यारत्नस्येदृश एव वरेऽभिलाषेण भवितव्यम् । इति संस्कृतम्]” इत्यादिकोऽनुरागलक्षणः सर्वाङ्कानामर्थ इति । श्रयं च गर्भाङ्कोऽप्युच्यते ।
का० २७, सू० २४ ]
यदाहु:
"अङ्कान्तरेव चाङ्को निपतति यस्मिन् प्रयोगमासाद्य । बीजार्थ युक्तियुक्तो गर्भाङ्को नाम विज्ञेयः ॥” इति अथ विष्कम्भकादीनां विषयव्यवस्थामाह
[ सूत्र २४ ] आद्यौ सूच्ये बहावन्ये क्रमादल्पे तरे तमे ॥ २७ ॥
तर-तम-प्रत्ययौ नान्तरीयकतया सन्निधानाच्चाल्पशब्दं प्रकृतिमाकर्षतः, तेनाल्पतरे अल्पतमे इत्यर्थः । छन्दोऽनुरोधाच्च प्रत्ययानुकरणनिर्देशः । 'श्रन्ये' अङ्कास्य- चूलिका अङ्कावताराः । क्रमादिति लक्षणक्रमेण । 'बहौ', बहुकाले च सूच्ये आविष्कम्भक प्रवेशकौ । 'अल्पे' अल्पकाले चाङ्कास्यम्, अल्पतरे अल्पतरकाले च चूलिका, अल्पतमे अल्पतमकाले चाङ्कावतार इति ॥ २७ ॥
जाती है उसको 'प्रङ्कावतार' मानते हैं । जैसे रत्नावलीमें दूसरा अङ्क [इनके मतसे श्रङ्कावतार का उदाहरण बनता है]। क्योंकि उसमें-- .
" इस प्रकारके कन्यारत्नका इस प्रकारके वरमें ही अभिलाष होना चाहिए" । इत्यादि सब श्रङ्कोंका [बीजभूत] अनुराग रूप अर्थ [ प्रदर्शित किया गया है] इस लिए [यह द्वितीयाङ्क ही श्रङ्कावतार माना जाता है] । इसीको [ वे लोग ] 'गर्भाङ्क' भी कहते हैं। जैसाकि [ गर्भाङ्कका लक्षण करते हुए ] लिखा है कि-
"जहाँ प्रयोग [के अवसर] को प्राप्त करके श्रङ्कके भीतर हो बीजार्थ और युक्ति सहित नवीन श्रङ्क [उससे अविच्छिन्न रूपसे प्रारम्भ हो जाता है उसको 'गर्भाङ्क' नामसे समझना चाहिए ।
विष्कम्भकादिकी विषय-व्यवस्था-
पिछली कारिकाओं में विष्कम्भक, प्रवेशक आदि पाँच प्रकारके अर्थोपक्षेपकों का वर्णन किया था उनके विषयका उपसंहार करते हुए २७वीं कारिकाके उत्तरार्द्ध-भाग में इनका प्रयोग कब-कब करना चाहिए इस विषयव्यवस्थाका निरूपण करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैंta froster श्राविकी विषय-व्यवस्थाको कहते हैं
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[ सूत्र २४ ] - बहुत और बहुकाल -व्यापी [अर्थके] सूचनीय होनेपर भाविके दो [प्रर्थात् विष्कम्भक औौर प्रवेशकका प्रयोग करना चाहिए] और अल्प, प्रल्पतर एवं अल्पतम [अर्थ सूचनीय] होने पर क्रमसे [प्रङ्कास्य, चूलिका और प्रङ्कावतार रूप ] अन्य [अर्थोपक्षेपकका प्रयोग करना चाहिए] । २७ ।
[कारिकामें दिए हुए ] तर, तम दोनों प्रत्यय [ प्रकृतिके बिना न रह सकने के कारण अविनाभूत होनेसे और सन्निहित होनेके कारण 'अल्प' शब्दको प्रकृति रूपमें प्राकर्षित कर लेते हैं। इसलिए अल्पतर और अल्पतम यह अर्थ हो जाता है । [मूल कारिकामें ] छन्दके अनुरोध के कारण [अल्पतर अल्पतम न कहकर केवल तर तम द्वारा) प्रत्ययके धनुकररणका निर्देश किया गया है । [कारिकामें प्राए हुए ] 'अन्य' [पद ] से प्रङ्कास्य, चूलिका और अङ्का
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