Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १६, सू०१६ ] प्रथमो विवेकः
'चातुर्यामो मुहर्तता' इति मुहूर्तादारभ्य यामचतुष्टयं यावत् । सर्वापकर्षण घटिकाद्वयाभिने यः। सर्वोत्कर्षेण त्रिंशद्घटिकाभिनेयः । मुहूर्तादप्यपकर्षे प्रयोगापरिपूर्णत्वेन, यामचतुष्टयादप्याधिक्ये आवश्यककर्मविरोधेन च प्रेक्षक-प्रयोवतणा वैरस्यं स्यात् । एतदकस्यापकृष्टमध्यमोत्कृष्टं कालमानमिति ।।
अमुना वृद्धसम्प्रदायायातेनाङ्कलक्षणेन वक्ष्यमाणनीत्या अङ्कसंख्यापरिमाण. मुपपद्यते । ये तु वृद्धसम्प्रदायमवधूय अङ्कमध्येऽप्यवस्था समापयन्ति तन्मतसंग्रहार्थ उत्तरार्धमेव लक्षणम् । अत्र पुनरङ्कसंख्यानियमकारणमपरमन्वेष्यमिति ॥१६॥ समाप्त हो सके । इसी बातको भागे कहते हैं
_ 'चतुर्यामो मुहुर्ततः' अर्थात् 'मुहूर्त' से लेकर चार पहर [जिसका अभिनय हो]। अर्थात कमसे-कम [मुहूर्त भर दो घड़ी [४८ मिनट] में अभिनय करने योग्य । और अधिकसे-अधिक [चार प्रहर] तीस घड़ी [बारह घण्टे में अभिनय करने योग्य । मुहूर्त से भी कम [प्रयोगसमय] होनेपर प्रयोगके अपूर्ण रह जानेसे, और चार पहरसे भी अधिक [अभिनय] होनेपर [सन्ध्याचन्दन प्रवि] प्रावश्यक कार्योमें विघ्न पड़नेसे देखने वालों और अभिनय करने वालों [दोनों] के लिए ही अरुचिकर हो जावेगा। यह [कालको दृष्टिसे] अङ्कका कमसे कम, मध्यम और सबसे अधिक काल-परिमारण कहा है।
यहां सबसे अधिक जो चार प्रहर अर्थात् बारह घण्टेका अभिनयका काल-परिमाण लिखा है वह केवल एकाङ्की रूपकों में ही लागू हो सकता है । अनेक अंकों वाले नाटक मादि में एक-एक अंकका अभिनय चार प्रहर में समात हो यह बात तो बिल्कुल प्रसङ्गत है। प्रतः उसे केवल एकांकी रूपकों तक ही सीमित समझना चाहिए। मध्य काल-परिमारण यद्यपि यहाँ लिखा नहीं गया है किन्तु इनके बीच में कहीं भी स्वयं समझा जा सकता है । इसलिए मध्यमका भी उल्लेख व्याख्याकारने कर दिया है। न्यूनतम परिमाण एक मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी या ४८ मिनटका माना गया है।
पूर्वाचार्योंके मतानुसार परम्परासे पाए हुए इस प्र-लक्षणसे प्रागे कही जाने वाली प्रङ्कोंको संख्याका परिमाण भी बन जाता है। जो लोग प्राचीन प्राचार्योके मतको उपेक्षा करके अड्के बीच में भी अवस्थाको समाधि कर देते हैं उनके मतका संग्रह करनेके लिए उत्तराध ही लक्षण है। और इस मतमें अङ्कसंख्याके नियमका कोई और कारण खोजना होगा ॥१॥ नाटकोंकी अङ्क संख्याका विषय
इस कारिकामें अङ्कके लक्षणसे प्रकों की संख्या निश्चयकी बात कही है । उसका यह अभिप्राय है कि अवस्थाको समाप्ति एक अङ्कमें हो करनी चाहिए, अथवा कार्यवश उसका विच्छेद जहाँ होता है वह प्रङ्क कहलाता है। अर्थात् अङ्ककी रचना प्रवस्थानोंके प्राधारपर की जाती है। नाटकमें प्रस्तुत कार्यको १ प्रारम्भ, २ यल, ३ प्राप्त्याशा, ४ नियताप्ति और ५ फलागम ये पांच अवस्थाएं मानी गई हैं। उनका वर्णन प्रागे होगा। इनमें से समान्यतः एक-एक अवस्थाकी एक-एक अंकमें पूर्णता होनेपर माटककी समाप्ति पांच अंकों में हो जानी माहिए। यदि किसी अवस्थाकी पूतिमें दो अंक लग जाय तो नाटकके मंक हो सकते है। हो अबस्थानोंमें दो-दो अंक लग जाने पर सात या पांचों प्रवस्थानों में दो-दो अंक लग जाने
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