Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १९, सू० १६ ] प्रथमो विवेकः
[ ४३ इद च पदमुपयोगापेक्षम् । तेन सर्वरूपकपर्यताकघु, एकाङ्कषु च रूपकेषु, समवकाराधषु च उपयोगाभावाद् बिन्दोरनिबन्धः। छोड़कर केवल आकाशका एकदेश [अर्थात् पश्चिम भाग] ही जिसका विभव रह गया है निल पक्षमें 'अम्बर-खण्डमात्रविभवः', जिसके पास केवल एक वस्त्र मात्र ही सम्पत्ति शेष है] इस प्रकारका 'गोपतिः' [अर्थात् सूर्य और दूसरे पक्षमें राजा नल] देशान्तरको [अर्थात सूर्य पक्ष में पाताल लोकको और नल पक्षमें अन्य स्थानको] जा रहा है।
यह श्लोकका साधारण अर्थ है। इसमें वंतालिक सन्ध्याकालीन सूर्यास्तके दृश्यका वर्णन कर रहा है । पर उसमें अगले अङ्कमें दिखलाई जाने वाली सम्पूर्ण घटनाका बीज-रूप से बड़ा सुन्दर चित्रण किया गया है। यह चतुर्थ अङ्क स्वयम्बरा है। इसमें नलका दमयन्तीके साथ विवाहका दृश्य दिखलाया गया है। अगले मङ्कमें नलकी द्यूतक्रीड़ा प्रादिका वर्णन है। नल इतकीड़ामें राज-पाट सब कुछ हारकर बनमें चले जाते हैं। दमयन्ती भी उनके साथ जाती है । राजा नल वहां भूखसे व्याकुल होकर अपनी स्थितिसे बिल्कुल निराश हो जाते हैं पौर मन्तमें बन में जब दमयन्ती सो जाती है तो उसको अकेला छोड़कर कहीं मोर भाग जाते हैं। इस सब घटनाक्रमको अगले अङ्कमें दिखलाया गया है। किन्तु यहाँ कवि ने वैतालिकके द्वारा किए जाने वाले चतुर्थ अङ्कके इस अन्तिम श्लोक में उस सारे घटनाक्रमको श्लेष द्वारा बड़े सुन्दर रूपमें व्यक्त कर दिया है।
नल जुए में हारकर नवीन सम्पत्ति प्राप्त करने वाले विजयी राजाको अपनी सम्पत्ति प्रर्पण कर और स्वयं प्रताप-रहित होकर धूतव्यसनीके समान मलिन हाथ और सम्पूर्ण आशापोंका परित्याग कर अत्यन्त निराश होकर केवल एक कपड़ेका टुकड़ा ही जिनका वैभव शेष रह गया है इस प्रकारके गोपति अर्थात् पृथिवीपाल बनकर 'निद्रायद्दललोचना' कमलिनीके समान दमयन्तीको वनमें अकेला सोता हुआ छोड़कर किसी अन्य देशको चले जाते हैं यह अर्थ भी श्लेष द्वारा इस श्लोकसे सूचित किया गया है। इस प्रकार संक्षेपमें प्रगले अङ्ककी कथाका सूचक होने से यह अङ्कके अन्त में पढ़ा हुआ यह श्लोक 'बिन्दु' का सुन्दर उदाहरण बन पड़ा है।
इस प्रकार 'सबिन्दुः' पदसे, पूर्व प्रकके अन्तर्म अगले अङ्क में आने वाली कथाका सम्बन्ध सूचित करनेकेलिए 'बिन्दु' की रचना प्रावश्यक बतलाई गई है। जिस प्रकार पानी में पड़ा हुप्रा तेलका बिन्दु फैलकर विस्तीर्ण हो जाता है इसी प्रकार प्रशान्तमें 'बिन्दु' पसे जिस कथा-भागका संकेत किया जाता है वह कथा-भाग अगले अङ्कमें विस्तृत होकर फैल जाता है। इसीलिए अङ्कान्तमें किए जाने वाले इस संक्षिप्त संकेत के लिए यहाँ बिन्दु' शब्दफा प्रयोग किया गया है। यह विन्दु प्रत्येक प्रङ्कके अन्तमें अवश्य हो यह प्रावश्यक नहीं है अपितु उपयोगकी अपेक्षासे ही उसकी रचना की जाती है। जहां उसका उपयोग नहीं हो सकता है वहीं उसकी रचना प्रावश्यक नहीं है । जैसे नाटक प्रादिके अन्तिम प्रक्षों में बिन्दुका कोई उपयोग नहीं हो सकता है क्योंकि उसके प्रागे तो फिर कोई नया अंङ्क माना ही नहीं है जिसमें उसका विस्तार हो सके। इसलिए अन्तिम प्रङ्कमें 'बिन्दु' का सन्निवेश नहीं किया जाता है । इसी प्रकार एकाङ्की नाटकोंमें भी दूसरा कोई प्रङ्क न होनेसे 'बिन्दु' का कोई उपयोग नहीं होता है। इस बातको मागे लिखते हैं
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