Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम
३६ ]
अथ वृत्तस्य कर्तव्यगुणानाह
[ सूत्र ११] - स्वम्पपद्यं लघुगद्यं श्लिष्टावान्तरवस्तुकम् सिन्धु-सूर्येन्दु- कालादिवर्णनाधिक्यवर्जितम् ॥१४॥
सुष्ठु प्रसन्नार्थ प्रसिद्धशब्दं अल्पं परिमितं पद्य यत्र । गद्य ेन ह्यर्थः कथ्यमानः सुखावबोधो भवति । लघु हृद्यं परिमितं च गद्यं यत्र । कर्कशं बहुसमासं च गद्य दुर्बीधत्वात् खेदमुपनयति । श्लिष्टानि पारम्पर्येण प्रधानफलसम्बद्धानि श्रवान्तराणि प्रस्तुतान्तरालवर्तीनि वस्तूनि यत्र । नाट्ये हि तदेवावान्तरं वृत्तमायोज्यं यत् पारम्पर्येण प्रधानफलसाधकम् । यथा रत्नावल्यां प्लवगसम्पातः सागरिकानुरागबीअस्य फलकस्य सम्प्राप्तिहेतुः । यथा वास्मदुपज्ञे नलविलासे कापालिक विदूषक नियुद्ध राज्ञोनुरागमूलस्य दमयन्ती प्रतिकृतिदर्शनस्य हेतुः । सिन्धुर्नदी समुद्रो वा । सूर्येन्दुभ्यां तदुदयस्तौ गृह्यते । कालो वसन्तादिः प्रभावादिश्च । आदिशब्दात् गिरि-मधुपानजलक्रीडादि । सिन्ध्यादिक हि काव्यकण्डूवशान्निष्फलं न वर्णनीयम् । सफल मध्ये केन द्वाभ्यां वा वृत्ताभ्याम् | अधिक्यन्तु रसमन्तरयतीति ||१४||
[ का० १४, सू० ११
नाटक रचनाविषयक विशेष बातें---
अगली दो कारिकानों में ग्रन्थकारोंने नाटककी रचना में ध्यान रखने योग्य कुछ विक्षेष बातोंका उल्लेख निम्न प्रकार किया है
अब वृत्तके [अर्थात् नाटककी रचना के अवश्य ] करने योग्य गुणों को कहते
हैं
[ सूत्र ११ ] - सुन्दर और थोड़े पद्यों तथा सरल गद्यसे एवं परस्पर सम्बद्ध श्रवान्तर [कथा आदि ] वस्तुओं से युक्त, समुद्र, नदी, सूर्य-चन्द्र [के उदयास्त ] श्रौर [ वसन्त या प्रभात श्रादि ] कालके अधिक वर्णनसे रहित [अर्थात् स्वल्प वर्णन युक्त नाटककी रचना करनी चाहिए यह बात नाट्य-रचना में प्रवश्य कर्तव्य अर्थात् विशेष ध्यान देने योग्य है । १४ ।
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सुन्दर अर्थात् सरल अर्थ और प्रसिद्ध शब्दों वाला, थोड़ा श्रर्थात् परिमित पद्य जिसमें हो [यह स्वल्पपद्यं का अर्थ हुमा ] | क्योंकि गद्य के द्वारा कहा गया श्रर्थ जल्दी समझमें ला जाता है । 'लघु' अर्थात् मनोहर और परिमित गद्य जिसमें हो [ यह 'लघुगद्यं' का अर्थ है ] । कर्कश और अधिक समासों वाला गद्य कष्टदायक होता है श्लिष्ट अर्थात् परम्परासे प्रधान फल से ही सम्बन्ध रखने वाली अवान्तर अर्थात् प्रस्तुतके बीच में प्रयुक्त वस्तुएँ जिसमें हों [यह 'श्लिष्टावान्तरवस्तुकम् ' का अर्थ है ] । नाटकमें उसी प्रवान्तर कथावस्तु की योजना करनी चाहिए जो परम्परया प्रधान फलकी साधक हो । जैसे रत्नावली श्राना, सागरिका [ उदयनके प्रति] अनुरागके सूचक चित्रपटकी जैसे हमारे बनाए हुए नलविलास में कापालिक और विदूषकका झगड़ा राजा [ नल] के [ दमयन्तीके प्रति] अनुरागके सूचक दमयन्तीके चित्रके दर्शनका हेतु है । सिन्धुका श्रर्थ नदी श्रथवा समुद्र है। सूर्य और इन्दु पसे उनके उदय अस्तका प्रहरण होता है । प्रावि शब्दसे पर्वत, मधुपान, जलक्रीडा प्रादि [ का ग्रहण होता है] । केवल काव्यरचनाकी खुजली मिटाने के लिए समुद्र श्रादिका व्यर्थ वर्णन नहीं करना चाहिए। सार्थक होनेपर भी एक-दो श्लोकों
[नाटिका ] में बन्दरका प्राप्तिका हेतु है । प्रथवा
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