Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
View full book text
________________
३४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १३, सू० ११ जलप्यते इति जल्पो वृत्तमेव । ऊर्ध्वसर्वागुलिर्वक्रानामिकः कररित्रपताकः । सोऽन्तरमश्राव्यं प्रति व्यवधानं यत्र । अन्येन सह जल्पो जनानामेकस्यैव गोप्यत्वात् बहूनामन्तिक, श्राव्यतया निकटं, 'जनान्तिकम्'। इह यद् वृत्तमेकस्यैव गोप्यं बहूनामगोप्यं तज्जनान्तिकम् । तद्विपरीतमपवारितम्। प्रश्नश्च प्रत्युत्तरं चेति समाहारः । अपात्रकम, रङ्गप्रविष्टद्वितीयपात्ररहितम् । रङ्गप्रविष्टपात्रेण स्वयमात्मनैव यः प्रश्नो यच्चोत्तरं तदाकाशे पात्राभावात् शून्ये उक्तिः 'श्राकाशोक्तिः'। उच्यते इति उक्तिः । प्रश्नोत्तरविषयोऽर्थः। क्वचित् स्वोत्तरार्थमनुभाषणच्छायया परकीयः प्रश्नः, क्वचिन् स्वप्रश्नस्यानुभाषणच्छायया परकीयमुत्तरं इत्युभयपि आका शोक्तिरिति ।।१३।। वह 'जनान्तिक' और बिना पात्रके स्वयंही प्रश्न तथा उत्तरका कथन 'आकाशोक्तिः' [कहलाता है ॥१३॥
___ जो कहा जाता है वह जल्प' 'वृत्त' ही होता है । अनामिका उंगलीको झुकाकर और सब अंगुलियाँ उठी हों ऐसा हाथ "त्रिपताक' [कहलाता है। उसको प्रभाव्य [अर्थात् जिस एक व्यक्तिको बात सुनाना अभीष्ट नहीं है उस एक व्यक्ति के प्रति व्यवधान जिसमें बनाया जाय । [वह जल्प "त्रिपताकान्तरः जल्पः' हमा] । अन्योंके साथ [विशेष प्रकारका] वार्तालाप एकहीके प्रति गोप्य होने, और [बहुतोंके प्रति भगोप्य होनेसे] बहुतसे जमोंके लिए श्राव्य होनेसे 'प्रन्तिक' अर्थात् निकट होनेके कारण 'जनान्तिक' [कहलाता है। [मागे 'अपवारित' और 'जनान्तिक' का विशेष भेद दिखलाते है-] इनमेंसे जो बात एकही [व्यक्ति] से छिपाना हो बहुतोंसे गोप्य न हो वह 'जनान्तिक' [कहलाता है। उसके विपरीत [अर्थात् बहुतोंसे गोप्य और एकपर ही प्रकाशनीय अर्थ] 'अपवारितम्' [कहा जाता] है। [ कारिकामें पाए हुए 'प्रश्नप्रत्युत्तरम्' पदमें ] प्रश्न और प्रत्युत्तर इन दोनोंका समाहार है। 'अपात्रकम्' [ पदका ] रङ्गमें प्रविष्ट दूसरे पात्रसे रहित [यह भाव है] । रङ्ग में प्रविष्ट पात्रके द्वारा जब स्वयं अपने-अापही प्रश्न और प्रत्युत्तर किया जाता है वह प्राकाशमें अर्थात् दूसरा पात्र न होनेसे शून्यमें कथन होनेसे 'प्राकाशोक्तिः' [कहलाती है। जो कहा जाय वह [अर्थ] 'उक्ति' है । अर्थात् प्रश्न और उत्तरका विषयभूत अर्थ [उक्ति पदसे अभिप्रेत है। इसके भी दो प्रकार होते हैं] कहीं स्वयं उत्तर देनेके लिए अनुभाषरणके द्वारा दूसरेका प्रश्न, और कहीं अपने प्रश्नके [उत्तर रूप] अनुभाषण द्वारा दूसरेका उत्तर [प्राकाशोक्तिके रूप में कहा जाता है। ये दोनों ही प्राकाशोक्ति [कहलाते हैं। [अनुभाषरणच्छा. याका अभिप्राय यह है कि उस परकीय प्रश्न या उत्तरको स्वयं कहके सुनाता है अर्थात कहीं प्रश्नांश आकाशभाषित रूप होता है, और कहीं उत्तर भाग प्राकाशभाषित रूप होता है। इस 'आकाशभाषित' शब्द का प्रयोग भी नाटकों में पाया जाता है। ] ॥१३॥
बारह तथा तेरह संख्याकी इन दोनों कारिकाओं में नाटकीय भावाभिव्यक्तिकी पांच शैलियां दिखलाई हैं। इनमें से 'प्रकाशम्' तथा 'स्वगतम्' ये दोनों शब्द परस्पर सम्बद्ध शम्द है। जब 'स्वगतम्' रूपसे कहींपर कुछ बात कही जाती है तब उसके बाद फिर जहाँपर गोपनीय बात समाप्त हो जाती है और वक्ता सबको सुनाने योग्य बात कहना प्रारम्भ करता है वहाँपर 'प्रकाशम्' शब्दका प्रयोग किया जाता है। हर जगह 'प्रकाशम्' शब्दका प्रयोग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org