Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०५, सू०४ ] प्रथमो विवेकः
[ २३ तत्र देवता यथा नागानन्दे गौरी । उत्तमप्रकृतिर्यथा रामादिप्रबन्धेषु सुग्रीवादिरिति । यद्वा दिव्यानि अनवद्यानि अङ्गानि वक्ष्यमाणानि उपक्षेपादीनि यत्र ।
तत्रेति निर्धारणार्थः । अभिनेयसमुदायान् प्रधानपुरुषार्थप्रवृत्तविनयराजादिव्युत्पादनगुणेन नाटकं निर्धार्यते । नाटकमिति नाटयति विचित्रं रञ्जनाप्रवेशेन सभ्यानां हृदयं नर्तयति इति नाटकम् । अभिनवगुप्तस्तु नमनार्थस्यापि नटेर्नाटकशब्द व्युत्पादयति । तत्र तु घटादित्वेन ह्रस्वाभावश्चिन्त्यः ।।
उनमेंसे देवता [के सहायक होनेका उदाहरण] जैसे नागानन्दमें गौरी [मलयातीको प्राप्तिमें जीमूतवाहन को सहायक बनती है । दूसरे प्रकारके] उत्तम-प्रकृति [के सहायक होकेको उदाहरण] जैसे रामादिके नाटकोंमें सुग्रीव प्रादि । प्रथवा विव्य अर्थात् सुन्दर जिसके मन अर्थात् प्रागे कहे जाने वाले उपक्षेप मावि [रूप बङ्ग] हैं वह [दिव्याङ्गहमा । यह 'दिबाज' पदका दूसरा अर्थ है।
[कारिकामें आया हुमा] 'तत्र' शब्द निर्धारणार्थक [छांटनेके अर्थमें प्रयुक्त है। [बारह प्रकारके] अभिनेय [काव्यों के समुदायमेंसे [नाटकका अलग निर्धारण यहाँ 'तत्र' शम्बके द्वारा किया गया है। क्योंकि] मुख्य [धर्म, अर्थ, काम रूप] पुरुषार्थों [को सिद्धि में प्रवृत्त, उपदेश करने योग्य राजा मादिको [विशेष रूपसे] शिक्षा प्रदान करने वाला होते नाटकको [अभिनेय-काव्यके अन्य भेदोंसे 'तत्र' शबके द्वारा यहाँ] अलग किया जा रहा है ["निर्वायते' । इसलिए 'तत्र' शब्द यहाँ निर्धारणार्थक है। भागे] नाटक [भन्दको व्युत्पत्ति विखलाते हैं] नाना प्रकारसे सौन्दर्य के प्रवेश द्वारा ही सहृदयोके हृदयोंको [नाटयति नबति] मानन्दातिरेक से नघाता-सा है इसलिए नर्तनार्थक नट धातुसे] 'नाटका, [शब्द बनता है। अभिनवगुमने तो ['रपट नृतो' के स्थानपर 'एट नौ पाठ मानकर 'नति अर्थात् नमन मर्च वाले नट धातुसे भी नाटक शब्दकी सिद्धि की है। किन्तु उस स्थलपर [नमन अर्थमें तो नट धातुके] घटादि गणपठित होनेसे [मित और घटादि गणपठित धातुमोको 'घटादयो मित.के अनुसार मित् माननेसे 'मिता ह्रस्वः' प्रष्टा० ६-४.६२ सूत्रसे णिच् परे रहते उपधाको हस्व करने का विधान होनेसे 'नाटक' शब्दमें] ह्रस्वका प्रभाव चिन्तनीय है । [अर्थात् शुद्ध नहीं प्रतीत होता है] । अर्थात् यदि घटादि गरणस्थ नट धातुसे इस शब्दकी सिद्धि को जायगो तो उपधाको ह्रस्व होकर 'घटक' शब्दके समान 'नटक' शब्द बनना चाहिए । नाटक शब्द नहीं बनेगा।
___'गट नृत्तो' पातु भ्वादिगण में [धातु-संख्या ३१० तथा ७८१] दो स्थानोंपर पढ़ा गया है। सिद्धान्तकौमुदीकारने इन में से प्रथम-पठित धातुको नाट्यार्थक और दुबारा पठित धातुको नृत्यार्थक माना है।
___ "इदमेव. पूर्वमपि पठितम् । तत्रायं विवेकः पूर्वपठितस्य नाट्यमर्थः। यत्कारिषु नटव्यपदेशः । वाक्यार्थाभिनयो नाट्यम् । घटादौ तु नृतं नृत्यं चार्थः । यत्कारिषु नर्तकम्पपदेशः । पदार्थामिनयो नृत्यम् । गात्रविक्षे"मात्रं नृत्तम् । केचित्तु घटादी गट नती इति पठन्ति ।
भ्वादिगणकी ७८१ संख्या 4 : धातुको व्याख्या में यह सिद्धान्तकौमुदीकारका लेख है। इसी णट नतो पाठका उल्लेख नमनार्थक नट धातुके रूप में यहां किया गया है।
अभिनवगुप्तने नाटक शन्दको व्युत्पत्ति करते समय यद्यपि 'गट नतो' धातुका स्पष्ट रूपसे उल्लेख नहीं किया है किन्तु 'नमनं प्रह्वीभावः' नमनका अर्थ 'प्रह्वीभाव' नम्रता
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