Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ७, सू० ६ ]
प्रथमो विवेकः
[ २७
यः पुनः परशुरामस्यातिक्रूरत्वख्यापनार्थो धीरोद्धतत्वनिबन्धः स 'भाषाप्रकृतिवेपादेः कार्यतः कापि लंघनम्' इत्यपवादादविरुद्धः । अयं च नियमो देवानां मर्त्यापेक्षया न स्वापेक्षया । शिवादीनामुदात्तानां ब्रह्मादीनां शान्तानामपि च दर्शनात् । 'राजानः' इति क्षत्रियजातिः । बहुवचनात् व्यक्तिभेदेन चतुःस्वभावो नाटकस्य नेता, न पुनरेकस्यां व्यक्तौ । एकत्र प्राधान्येन स्वभावचतुष्कस्य वर्णयितुमशक्यत्वादिति । प्रधाननायकस्य चायं नियमो गौणनेतृणां तु स्वभावान्तरमपि पूर्वस्वभावत्यागेन निबध्यते । ये तु नाटकस्य नेतारं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते न ते मुनिसमयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललितादीनामपि नायकानां दर्शनात् कविसमय
वाह्याच ||७||
गार्थक माना जाता है । इसके प्रायः तीन प्रकारके प्रयोग माने जाते हैं । 'विशेष्य-सम्बद्धः एवकारः प्रन्ययोगव्यवच्छेदक : 'अर्थात् विशेष्य पदसे जब 'एव' का पद सम्बन्ध होता है तो वह अन्ययोगका व्यवच्छेदक होता है । जैसे 'पार्थं एव धनुर्धर:' इसमें 'पार्थ' अर्जुनको छोड़कर अन्य धनुर्धर नहीं हैं यह प्रन्ययोगका व्यवच्छेद होता है । इसी प्रकार 'विशेषरण संगतः एवकार प्रयोगव्यवच्छेदक : ' । विशेषण-संगत एवकार प्रयोग व्यवच्छेदक होता है जैसे 'पार्थो धनुर्धर एव' अर्थात् अर्जुन धनुर्धर ही है यहाँ 'एव' शब्द श्रर्जुनमें धनुर्धरत्वके प्रयोग अर्थात् सम्बन्धाभावका निषेधक अर्थात् प्रवश्य सम्बन्धका द्योतक है । इसी प्रयोगव्यवच्छेदक एवकारको यहाँ ग्रन्थकारने 'स्वयोगव्यवस्थापक' माना है । धीरोद्धत आदि विशेषरणों के साथ सम्बद्ध एत्रकार अन्ययोगका व्यवच्छेदक नहीं अपितु प्रयोगव्यवच्छेदक अथवा स्वयोगव्यवस्थापकमात्र है यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है । तीसरा एवकार क्रियाके साथ सम्बद्ध होता है । 'क्रिया सम्बद्ध एवकारो प्रत्यन्तायोगव्यवच्छेदक : क्रिया के साथ सम्बद्ध होने वाला 'एवकार' श्रत्यन्तायोगका व्यवच्छेदक होता है । जैसे 'नीलं कमलं भवत्येव' इसमें 'भवति' क्रियाके साथ सम्बद्ध 'एवकार' कमलमें नीलत्वके प्रत्यन्त प्रयोगका निषेध करके नील कमल भी हो सकता है इस अर्थको बोधित करता है ।
और जो [विप्र ] परशुराम के प्रतिक्ररत्वके सूचित करने के लिए धीरोद्धतत्वका वर्णन किया गया है वह 'कहीं कार्यवश [विशेष प्रयोजनसे] भाषा - प्रकृति और वेष आदि [ विषयक नियमों का उल्लंघन भी किया जा सकता है' इस अपवादके विद्यमान होनेसे अनुचित नहीं है [अर्थात् यहाँ अपवाद रूपमें ही परशुराम के ब्राह्मण होते हुए भी धीरोद्धत-स्वभावका वर्णन किया गया है यह समझना चाहिए] । देवतानोंका यह [ धीरोद्धत स्वभावका ] नियम मनुष्योंकी दृष्टिसे है, अपनी दृष्टिसे नहीं। क्योंकि [देवताओं में भी ] शिव प्रादि धीरोदात्त तथा ब्रह्मा श्रादि धीरशान्त [नायक] भी दिखलाई देते हैं । 'राजानः' पदसे [राजाका ही ग्रहण न करके ] क्षत्रियजाति मात्र [ का ग्रहण करना चाहिए ] । श्रौर [ राजानः पदमें] बहुवचन [के प्रयोग ] से व्यक्ति-भेदसे नाटकके नेता चारों प्रकारके स्वभाव वाले हो सकते हैं, एक व्यक्ति में [ चारों प्रकारके स्वभाव ] नहीं [हो सकते हैं यह बात सूचित की है] । क्योंकि एक व्यक्तिमें ही चारों प्रकारके स्वभावका वर्णन कर सकना असम्भव है । और यह नियम [अर्थात् चारों प्रकारके स्वभावका एक व्यक्तिमें वर्णन नहीं किया जा सकता है केवल ] प्रधान नायकके विषयमें ही है। गौरा नायकोंमें तो पूर्व-स्वभावको छोड़कर अन्य स्वभावका वर्णन भी किया जा सकता
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