Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०५, सू० ४ ] प्रथमो विवेक
[ १७ अथ यथोद्देशं लक्षणमाह[सूत्र ४]-ख्याताधराजचरितं धर्मकामार्थसत्फलम्
साङ्कोपाय-दशा-सन्धि-दिव्याङ्गं तत्र नाटकम् ॥॥ लित रूपसे [समस्ता] जिनमें रहती हैं [वे व्यायोगसे लेकर वीथी पर्यन्त पाठ रूपकभेद 'त्रिवृत्तयः' तीन वृत्तियों वाले होते हैं। इनमें जिन व्यायोग, समवकार ईहामृग और डिममें उनके लक्षणों में एक-एक वृत्तिके प्राधान्यका निर्देश [किया हुआ है उनमें व्यक्ति-भेदसे कवि अपनी स्वेच्छासे एक-एक वृत्तिको प्रधान रूपसे निबद्ध करता है । और जिन भेदोंमें अर्थात् भारण प्रहसन, उत्सृष्टिकाङ्क और वीथीमें जिस [विशेष] वृत्तिका नाम लेकर] प्राधान्यका निर्देश किया गया है उनमें [कवि अपनी स्वेच्छासे नहीं अपितु उसी निर्देशके अनुसार उसी वृत्तिको प्रधान रूपसे और अन्य दोनों [वृत्तियों की गौरण रूपसे अथवा अल्पताके कारण सर्वथा प्रभावको [उपनिबद्ध करता है । आगे 'कैशिकोपरिवर्जनात्' का अर्थ करते हैं-] कैशिकी [वृत्ति का 'परि' अर्थात् सम्पूर्णतया वर्जन अर्थात् अभाव होनेरो च्यायोगसे लेकर वीथी पर्यन्त पाठ भेद केवल तीन वृत्तियों वाले होते हैं] । यद्यपि समवकारमें शृङ्गारत्व [शृङ्गारका भाव काम प्रदर्शित होता है किन्तु फिर भी [शृङ्गारमें होनेवाली] कैशिकी-वृत्ति वहाँ नहीं रहती है। क्योंकि केवल साधारण कामका ही नाम शृङ्गार नहीं है किन्तु [उसके] विलास का उत्कर्ष [उदात्तीकरण शृङ्गार शब्दसे कहा जाता है । समवकारमें सामान्य लौकिक कामव्यापारमात्रका प्रवर्शन होता है उसके विलासोत्कर्ष या उदात्तीकरणका नहीं] । क्योंकि [वह] समवकारमें प्रस्तुत किए जाने वाले [रौद्र-प्रकृतिके] पात्रों में नहीं हो सकता है। इसलिए समयकारमें यथार्थ शृङ्गारका प्रदर्शन सम्भव नहीं है, और उसमें प्रयुक्त शृङ्गार शम्ब केवल [सामान्य] काम मात्रका बोधक है।
इसका यह अभिप्राय है कि तीन वृत्तियों वाले पाठ म्पक-भेदोंमेंसे समवकार में यद्यपि कामको प्रवृत्तियोंका दर्शन होता है किन्तु उसको उदात्त रूप न होनेसे शृङ्गार शब्दसे नहीं कहा जा सकता है । इसलिए उसमें कैशिकी वृत्तिका उपयोग नहीं होता है। अत एव व्यायोग आदि अन्य सात भेदोंके साथ, काम-युक्त होने पर भी समवकारको कैशिकी-वृत्ति हीन केवल तीन वृत्तियों वाले वर्गमें रखा गया है ।।३-४॥ १ नाटक लक्षण
पिछली कारिकामों में ग्रन्थकारने रूपकके वारह प्रधान भेदोंका 'उद्देश' अर्थात् 'नाममात्रेण वस्तुसङ्गीतंन' किया है । 'त्रिविधा च शास्त्रस्य प्रवृत्तिः, उद्देशो लक्षणं परीक्षा च' इस सिद्धान्तके अनुसार 'उद्देश' के बाद लक्षणका अवसर प्राता है। अत एव प्रागे ग्रन्थकार उद्देशके क्रमसे ही लक्षणोंका निरूपण प्रारम्भ करते हैं । उद्देशक्रममें सबसे पहले नाटकका नाम पाया है इसलिए सबसे पहले नाटकका ही लक्षण करते हैं।
अब उद्देश क्रमके अनुसार [नाटकके] लक्षरणको कहते हैं--
[सूत्र ४] उन [रूपक-भेदों] मेंसे धर्म, अर्थ और काम [रूप त्रिविध] फलावाला, प्रङ्क, उपाय, दशा, सन्धिसे युक्त, देवता प्रावि जिसमें [प्रधान नायकके अङ्ग अर्थात् सहायक हों, इस प्रकारका पूर्वकालके प्रसिद्ध राजानोंका चरित [प्रदर्शित करनेवाला अभिनेय काव्य] नाटक [नामसे कहा जाता है ।।
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