Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १, सू०१ ] प्रथमो विवेकः
[ ११ २--प्रथाभिनेयवाक्यपरतया श्लोकोऽयं व्याख्यायते । यद्यपि साक्षात् धर्मअर्थ-कामफलान्येव नाटकादीनि तथापि 'रामवद् वर्तितव्यं न रावण वद्' इति हेयोपादेय-हानोपादानपरतया, धर्मस्य च मोक्षहेतुतया मोक्षोऽपि पारम्पर्येण फलम् । 'नित्यम्' इत्यनेन चतुर्वर्गफलान्येव रूपकाणि निबन्धनीयानि इति ख्याप्यते। जिनानां रागादिजेतृणां लक्षणप्रणयनापेक्षेयं 'जैनी'। न नाम सर्वत्रोपदिष्टं लक्षणं न । नवेक्षाऽर्वाचीनदृशः संक्षेपविस्तराभ्यां तत् कतु प्रभवन्ति । पर भी अर्थात् जिन-वारणीके द्वारा जगत्को न्याय-मार्गमें व्यवस्थित करनेका कार्य, भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालोंमें ही होता रहता है फिर भी 'धृतम्' पदमें प्रतीतकालके सूचक क्त-प्रत्ययके द्वारा केवल प्रतीत-कालका निर्देश वाणीके अनादित्वको सूचित करने के लिए किया गया है। 'पथि' मार्ग में इस [पद] से [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप] पुरुषार्थोके प्राप्त करनेका उपाय होनेके कारण अहिंसा दान आदि कर्मका ग्रहण [पथि पदसे होता है। [अर्थात् जिनोंकी वाणीने विश्वको अहिंसा दान प्रादि कर्मों में लगाया यह 'पथि धृतम्' का अर्थ है। मङ्गल श्लोककी दूसरी व्याख्या
यहाँ तक विवरणकारने मङ्गलश्लोकको सामान्य मङ्गलाचरण-परक व्याख्याकी है। प्रागे वे इसकी दूसरे प्रकारकी व्याख्या करेंगे। इस दूसरी व्याख्याका सम्बन्ध प्रकत नाटकादि रूप विषयके साथ होगा। इसलिए इसमें 'वाचम्' शब्दसे सामान्य वारणी मात्रका ग्रहण न होकर केवल नाटकादि रूप वाणीका ही ग्रहण किया जायगा। शेष पदोंके अर्थों में तो कोई विशेष अन्तर नहीं किया गया है किन्तु उनकी व्याख्या नाटकादिपरक रूपसे भिन्न प्रकारसे दिखलाई है। उसीको अगले अनुच्छेदमें लिखते हैं
- अब आगे अभिनेय-वाक्य [अर्थात् नाटक आदि परक रूपसे इस श्लोकको [दूसरे प्रकारसे व्याख्या करते हैं । यद्यपि साक्षात् रूपसे नाटक प्रादि [बारहों प्रकारके रूपक] धर्म, अर्थ और काम [इन तीनोंमेंसे ही किसी एक] फलको ही प्रदान करने वाले होते हैं [अर्थात् मोक्ष रूप चतुर्थ फलके साध नाटकादिका कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता है] फिर भी 'रामके समान आचरण करना चाहिए रावणके समान नहीं' इस प्रकारको हेय [अर्थात् परित्याग करने योग्य अधर्माचरण और उपादेय [अर्थात् ग्रहण करने योग्य धर्माचरण] के [क्रमशः] हान [अर्थात् परित्याग] और उपादान [अर्थात् ग्रहण] परक होनेसे [नाटकादि मोक्षके प्रति भी परम्परया कारण हो सकते हैं। इसलिए मोक्षको भी उनका फल कहा जा सकता है । इसका दूसरा कारण भी अगली पंक्तिमें देते हैं कि] और धर्मके [भी] मोक्षजनक होनेसे परम्परासे मोक्ष भी [नाटिकादिका] फल हो सकता है । 'नित्यम्' इस [पद से चतुर्वर्ग रूप फल के साधक, अथवा चतुर्वर्ग रूप फलको प्रदर्शित करने] वाले ही नाटकादि की रचना [कवियोंको] करनी चाहिए यह बात ["नित्यम्' पदसे सूचित की गई है । [जैनी इस पदमें 'जिन' पदसे तस्येदम् अष्टा० इस सूत्रके द्वारा श्रग -प्रत्यय करके 'जनो' पद बनता हैं । इसलिए उसका अर्थ] जिनानामिय जैनो जिनोंकी यह । अर्थात् जिन-सम्बन्धिनी धारणी यह होता है । और 'जिन' शब्दसे रागादिके विजेता सन्तोंका ग्रहण होता है इसलिए 'जिनों' अर्थात् राग आदिको यश में कर लेनेवालोंकी यह वासी साक्षात् रूपसे जिनप्रोक्त न
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