Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्र विरचितं स्वोपज्ञविवरणविभूषितं
नाट्यदर्पणम्
प्रथमो विवेकः चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनी वाचमुपास्महे । रूपैदिशभि-विश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥१॥ अथ श्रीमदाचार्य विश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिविरचिता
नाट्यदर्पणदीपिका हिन्दी व्याख्या इनोत पृच्छ जनिमा कवीनां मनोधृतः सुकृतस्तक्षत द्याम् । इमा उ ते प्रण्यो वर्धमाना मनोवाता अघ नु धर्मणि ग्मन् ।।
ऋग्वेद ३-३८-२। विश्व-नाट्यमिदं सूत्रधारो यस्तनुते सदा। रसकन्दस्वरूपाय तस्मै सूत्रात्मने नमः ।।
यदंश-भायं भरते सवृत्तिके कृतं, न पूर्ति-विषयस्य तावता। अतोऽस्य पूत्य परिशिष्टरूपतः :
तनोमि वृत्तिं खलु नाट्यदर्पणे ।। वृत्तिभागका मङ्गलाचरण
[धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप] चतुर्वर्गात्मक फलोंको प्रदान करने वाली [रागादि के विजेता] जिनोंकी [उस] वाणीको हम नमस्कार करते हैं जिसने [अपने] बारह रूपों के द्वारा संसारको न्यायोचित मार्गमें स्थापित किया है ।१।
इस ग्रन्थके निर्माता श्री रामचन्द्र-गुणचन्द्र (१०६३-११७५) दो व्यक्ति हैं। उन्होंने सम्मिलित रूपसे इस ग्रन्थकी रचना की है। दोनों जैन आचार्य श्री हेमचन्द्र के शिष्य और परस्पर सहाध्यायी गुरुभाई हैं। जैन मतावलम्बी होनेके कारण इस गङ्गलश्लोक में उन्होंने 'जैनी-वाणी' अर्थात् रागादि विजेता अपने आराध्य जिनोंकी वाणीको नमस्कार किया है । उस 'जिन-वाणी' के उन्होंने 'द्वादश-रूप' बतलाए हैं । ये 'द्वादस-रूप' जैन शास्त्रोंमें निम्न प्रकार गिनाए गए हैं
१. प्राचाराग, २. सूत्रकृताङ्ग, ३. स्थानाङ्ग, ४. समवायाङ्ग, ५. भगवती,
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