Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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२. ]
नाट्यदर्पणम्
महाकविनिबद्धानि दृष्ट्वा रूपाणि भूरिशः । स्वयं च कृत्वा, स्वोपज्ञं नाट्यलक्ष्म विवृवहे ||२||
६. ज्ञाताधर्मकथा, ७ उपासकदशा, 5 अन्तकृद्दशाङ्ग, ६ अनुत्तरोपपायिक, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक और १२ दृष्टिवाद |
श्राचाराङ्गसे लेकर दृष्टिवाद पर्यंत इन 'द्वादश रूपों के द्वारा ही रागादिके विजेता जिनोंको वारणीने विश्वको धर्ममार्ग में स्थित रहने की प्रेरणा प्रदान की है। इसलिए ग्रन्थकारने यहाँ उन द्वादश रूपों वाली जिन-वारणीको नमस्कार किया है। किन्तु इसके अतिरिक्त यहाँ 'द्वादश रूपों' की चर्चा करनेका कुछ और भी कारण है उसका सम्बन्ध इस ग्रन्थसे है । नाट्यदर्पण के आरम्भ में जो यह मङ्गल- श्लोक लिखा गया है उसका ग्रन्थके प्रतिपाद्य नाट्य विषय के साथ भी कुछ सम्बन्ध होना चाहिए। इस दृष्टिसे ग्रन्थकार इसकी नाट्यपरक भी आगे स्वयं प्रस्तुत करेंगे । इस व्याख्या में 'द्वादरूपैः' से बारह प्रकार के रूपकभेदोंका ग्रहण किया जायगा । इसी दृष्टिसे ग्रन्थकारने यहाँ विशेष रूपसे 'रूपंद्वादशभिः ' पदों का समावेश किया है ।
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नाट्य विषयपर सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रंथ भरत मुनिका 'नाट्यशास्त्र' है । उसके बाद 'दशरूपक', 'भावप्रकाश', 'साहित्यदर्पण' तथा 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' आदि अनेक प्रत्थों में नाट्य-सम्बन्धी विषयका विवेचन किया गया है। इन सबमें ही प्रायः रूपक के दस भेद गिनाए गए हैं । दश-रूपककार धनञ्जयने तो अपने ग्रन्थका नाम हो 'दशरूपक' रखा है। उससे रूपक के मुख्य दस भेदोंकी सूचना मिलती है। उन्होंने दस रूपकों का सम्बन्ध दस अवतारोंके साथ भी जोड़ा है। दस अवतारोंके समान रूपक भी दस ही हैं, यह उनका मत है । परन्तु फिर भी उन्होंने गौरा भेदके रूपमें ग्यारहवें भेद 'नाटिका' का भी उल्लेख किया है। मौर 'रत्नावली नाटिका' के बहुत से उदाहरण भी ग्रंथ में प्रस्तुत किए हैं। 'भावप्रकाश' तथा साहित्यदर्पणकार ने भी 'नाटिका' को ग्यारहवाँ भेद माना है और उसके उदाहरण रूप में 'रत्नावली - नाटिका' का उल्लेख किया है । इस प्रकार अन्य प्राचार्यो के मत में भी रूपकके ग्यारह भेद बन जाते हैं । किन्तु यहाँ ग्रंथकार ने 'प्रकरणी' नामक एक और भेद करके रूपकके बारह भेद कर दिए हैं । उसी श्राधारपर यहाँ 'द्वादश रूपों' की चर्चा की गई है ।
इस ग्रंथ के दो भाग हैं एक कारिका भाग श्रीर दूसरा उसका वृत्ति प्रथवा विवरण भाग । दोनों भागों के रचयिता एक ही हैं । अर्थात्- जिन्होंने मूल कारिकाओंकी रचना की है, उन्होंने उनपर स्वयं ही वृत्ति भी लिखी है। इसलिए यह मङ्गल-श्लोक कारिका भाग और वृत्ति भाग दोनोंके प्रारम्भ में दिया गया है । यहाँपर यह श्लोक वृत्ति भागके मङ्गलाचरण के रूपमें दिया गया है। मूलकारिका भागके मङ्गलाचरण के रूप में प्रागे फिर इसको लिखकर इसकी व्याख्या करेंगे । सम्प्रति वृति भागको प्रवतरणिकांके रूपमें बारह श्लोक लिखते हैं ।
वृत्ति भागकी अवतरणिका -
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[कालिवास प्रावि] महाकवियोंके बनाए हुए अनेक रूपकों [ भूरिशः रूपाणि ] को
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