Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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(१४)
यहाँ धनञ्जय ने नाटक और अन्य रूपकों में अन्तर दिखाने का प्रयत्न किया है, पर रूपक और रूपक से इतर साहित्य का अन्तर कहीं नहीं स्पष्ट किया है। रामचन्द्रगुणचन्द्र ने इस समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया है
१. रामचन्द्रगुणचन्द्र ने नाटक और कथासाहित्य में व्यावर्तक धर्म स्थापित करते हुए कहा है कि यद्यपि कथादि भी श्रोतामों के हृदय को नचा देते हैं किन्त वे उपायादि वैचित्र्य हेतुमों के प्रभाव में उतने उल्लासकारी नहीं होते।
२. नाटक के द्वारा राजा और उसके अंग रूप में मामात्यादि को व्युत्पन्न किया जाता है, जो नाटकेतर साहित्य में सम्भव नहीं है।
३. कथासाहित्य और नाटक की रचनाशैली में स्पष्ट अन्तर इस प्रकार होता है। श्रव्यकाव्य में पद्य ही पद्य और पाख्यायिका में गद्य ही होता है और दोनों में समुद्र, नदी, सूर्य, चन्द्र प्रादि के प्राकृतिक वर्णन का बाहुल्य होता है। किन्तु नाटक में पद्य की संख्या स्वल्प और गद्यशैली भी पाख्यायिका से भिन्न होती है। कादम्बरी एवं वासवदता आदि प्राख्यायिका-ग्रन्थों में दीर्घ सामासिक गद्य स्पृहणीय है। किन्तु नाटक में सरल एवं दोघं समास-रहित गद्य ही वाञ्छनीय है, ककंश और अधिक समस्तपदयुक्त गद्य ठीक नहीं। नाटक में उसी अवान्तर कथावस्तु की योजना होती है, जो परंपरा से फल की साधक होती है । रामचन्द्रगुणचन्द्र ने अपने 'नलविलास' नामक नाटक का उल्लेख करते हुए दमयन्ती के चित्रदर्शन द्वारा नल के हृदय में अनुराग उत्पन्न करने का प्रयास किया है, मतः चित्रदर्शन की प्रवान्तर कथा नाटक के सर्वथा उपयुक्त ही मानी जायगी।
४. नदी, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, पर्वत, मधुपान जलक्रीड़ा प्रादि का वर्णन नाटकेतर साहित्य में आवश्यक माना जाता है, किन्तु नाटक में इन लम्बे वर्णनों से नाटक-रस तिरोभूत हो जाता है। इनका प्रत्यल्प वर्णन तो स्वीकार्य हो सकता है, पर विस्तृत वर्णन नाटकोपयोगी नहीं माना जा सकता।
५. अलंकारों का विशेष प्रयोग भी नाटक में उपादेय नहीं समझा जाता। नाट्यदर्पणकार कहते हैं कि उन्हीं श्लेषोपमादि का प्रयोग करना चाहिए जो रससिद्धि के लिए किये जाने वाले प्रयत्न से ही सिद्ध होते हैं । कथाभाग में उपक्षेप प्रादि संन्ध्यंगों की रचना इस प्रकार करनी चाहिए कि जिससे वे रस को तिरोभूत न कर सकें।
लक्षण और उदाहरण
नाट्यदर्पणकारने पारिभाषिक शब्दावली के लक्षण एवं उदाहरण पूर्ववर्ती प्राचार्यों से पृथक् रूप में किये है। उन्होंने न तो भरत का अनुसरण किया है और न अन्य पूर्ववर्ती नाट्याचार्यों का । उन्होंने लक्षण और उदाहरण की एक नवीन पद्धति अपनाई है। सूत्रों में सामान्य लक्षण और वृत्ति में उसका विवेचन किया है। यहां दो बार पारिभाषिक शब्दों के लक्षण और उदाहरण लिखकर रामचन्द्रगुणचन्द्र को मौलिकता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा।
प्रङ्क का लक्षण भरतमुनि इस प्रकार लिखते हैं
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