Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( ७२ )
मन्य ग्रन्थ से प्रेरणा प्रारत कर विश्वनाथ ने भी काव्यप्रकाश के समान 'निर्वेद' को दोनों रूपों में स्वीकृत न कर इन्हीं के अनुरूप शम तथा निर्वेद दोनों भावों की अलग-अलग स्वीकृति की है ।" वस्तुतः स्वच्छ प्रतिपादन के लिए श्रावश्यक भी यही था ।
अभिनय और नट तथा प्रेक्षक
'प्रभिनीयते इति श्रभिनयः' । अभिनय उसे कहते हैं जिसके द्वारा [श्रभीष्ट] प्रर्थ (विषय) सामाजिकों के सम्मुख साक्षात् रूप से प्रस्तुत किया जाता है - सामाजिकानामाभिमुख्येन साक्षात्कारेण नीयते प्राप्यतेऽर्थोऽनेनेति अभिनयः ।
(6.)
अनुकर्त्ता (नट ) अपने अनुकरण द्वारा अनुकार्यं ( रामादि) और प्रेक्षक के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है उसके अनुकरण के बल पर प्रेक्षक उसे ही अनुकार्य समझने लगता है । किन्तु यह सब कैसे सम्भव होता है क्योंकि न तो अनुकर्ता ने अनुकार्य को देखा होता है, और न प्रेक्षक ने । अतः न तो धनुकर्ता अनुकार्य का [ यथावत्] अनुकरण कर सकता है और न प्रेक्षक धनुकर्ता के अनुकरण को देखते हुए भी इसे [वास्तविक] अनुकरण मान सकता है ।"
इस शंका के समाधान में रामचन्द्र गुरणचन्द्र के निम्न कथन उल्लेखनीय है :
१. अभिनेता कवि-प्रणीत रामादि के चरित को पढ़कर प्रत्यन्त अभ्यास द्वारा ऐसा अनुभव करने लगता है कि उसने मनुकार्य को स्वयं देख सा लिया है और पुनः यह अध्यवसान करने लगता है कि में उसी का ही अनुकरण कर रहा हूँ ।"
२. यहां एक शंका की जा सकती है कि कवि जन अपने नाटकों में राम शादि अनुकार्य की अवस्था का चित्रण कैसे कर पाते हैं जबकि उन्होंने भी तो राम को नहीं देखा होता । इसके उत्तर में कहा गया है कि " त्रिकालदर्शी ऋषिजनों से उन्हें यह ज्ञान मिलता है, जिसके प्राधार पर वे अपने नाटकों का निर्माण करते हैं, तथा इनके ही ज्ञान पर पूर्ण विश्वास करने से प्रेक्षक भी नट को अनकार्य समझ लेता है । *
३.
यद्यपि नट को यह ज्ञात नहीं होता कि अमुक अवसर पर किस प्रकार का हास्य प्रथवा रोदन अनुकार्य ने किया होगा, किन्तु वह वस्तुतः लोकव्यवहार का ( लोक में विभिन्न भवसरों पर हंसने और रोने वाले व्यक्तियों का) अनुकरण कर रहा होता है ।"
१. साहित्यदर्पण ३ । १४२, १७५, २४५ २. रामादेरनुकार्यस्य नटेन प्रेक्षक
स्वयमदृष्टत्वात् । अनुकर्त्ता हि मनुकार्यमदृष्ट्वा नानुकर्तुं मलम् । प्रेक्षकोऽपि चादृष्टानुकार्यो नानुकर्तुं नुकस स्वमनुमन्यते ।
हि० ना० ० पृष्ठ ३५.२
३. तवयं नटो रामादेश्चरितं कविनिबद्ध मधीत्य प्रत्यन्ताभ्यामवशतः स्वयं हृष्टमनुमन्यमानोऽनुकरोमि इत्यध्यवस्यति । - वही
४.
इह तावद् इत्थमाकृतिरित्थं गतिः XXX इत्येवमशेषमपि रामाविललितम् ऋषीणां कालदशिना ज्ञानेन निश्चितं कवयो नाटके निबध्नन्ति । तत्र चार्थे मुनिशामविश्वासात् नटस्य साक्षात् दर्शनेमेव । - वही, पृष्ठ ३५३
५. परमार्थतस्तु लोकव्यवहारमेवाऽयमनुवर्तते । - वही
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