Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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४. उधर प्रेक्षक भी यद्यपि देश-काल के भेद के कारण नट को रामादि समझने में असमर्थ होता है, तो भी नट द्वारा उच्चरित रामादि के शब्द-संकेतों के श्रवण तथा अत्यन्त मनोरम संगीत प्रादि के वशीभूत होकर उस नट को रामादि समझने लगता है जो [वाचिक प्रादि] चार प्रकार के अभिनय से आच्छादित हो चुका होता है-उसका अपना वास्तविक रूप रामादि के रूप के नीचे ढंप गया होता है । ऐसी स्थिति में प्रेक्षक रामादि की सुख अथवा दुःख रूप. प्रवस्थानों में लीन हो जाता है।'
५. इसके अतिरिक्त अनुकर्ता को अनुकार्य समझ लेने का कारण म्रान्ति भी है, जिसके बल पर प्रेक्षक श्रृंगार आदि रसों का आस्वाद प्राप्त करता है : उन्मिपन्ति च भ्रान्तेरपि शृंगारादयः । क्योंकि इसी भ्रान्ति के ही कारण स्वप्न में भी कामिनी, वैरी अथवा चौर आदि को देख कर स्वप्न ष्टा स्तम्भ मादि अनुभावों का अनुभव करते हैं।
उक्त कथनों का निष्कर्ष यह है कि कोई प्रेक्षक जब तक अनुकर्ता को कृत्रिम व्यक्ति समझ रहा होता है तब तक उसे रसास्वाद प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु जब वह उसे अनुकार्य समझने लगता है तभी उसे रसास्वाद की प्राप्ति होती है। उसे अनुकार्य समझ लेने का कारण है उसका अभिनय-कौशल तथा अन्य रंगमञ्चीय मनोहारी व्यवस्था। इन दोनों को नाट्यदर्पण के अनुसार 'भ्रान्ति' अथवा चकाचौंध भी कह सकते हैं। उधर अनुकर्ता का अभिनय-कौशल भी इसी अध्यवसान पर प्राधारित है कि वह अपने मापको अनुकार्य ही समझ ले भौर यह तभी सम्भव है जब एक मोर तो वह कवि-निबद्ध नाटक का पुनः पुनः अभ्यास करता है और दूसरी ओर वह लोकिक व्यवहार से विभिन्न प्रकार के मनोभावों का प्रदर्शन सीखता है। शेष रहा कवि का प्रश्न कि उसे अनुकार्यों की विभिन्न मनोदशामों का ज्ञान कैसे हो जाता है ? वह इसे ज्ञानचक्षुषों से देखने वाले ऋषियों से प्राप्त करता है।
रामचन्द्र-गुणचन्द्र का उक्त विवेचन अधिकांशत: मान्य है। उनका अन्तिम कथन किञ्चित् शिथिल है। इसका अभिप्राय केवल यही लिया जा सकता है कि कविजन काव्य-नाटक के निर्माण के समय अपनी कल्पना के बल पर जो विवरण प्रस्तुत करते हैं वे शायद लगभग वैसे ही होंगे जैसे कि अनुकार्यों के साथ घटित हुए होंगे। जिसे माज का पालोचक कल्पना (इमैजिनेशन) कहता है उसे राम चन्द्र-गुणचन्द्र के शब्दों में 'ऋषियों की शानचक्षु' कह सकते हैं। स्वयं वाल्मीकि भी यदि राम के समय में रहे हों तो भी वे उनकी सर्व प्रकार की मनोदशाओं से अवगत नहीं होंगे। अतः उनकी ज्ञानचक्षु को 'कल्पना' का पर्याय मान सकते हैं। इसी प्रकार भास, कालिदास मादि नाटककारों ने अन्य मुनियों के सम्पर्क द्वारा मनुकार्य व्यक्ति की मनोदशामों का ज्ञान प्राप्त किया होगा-यह मानना भी न तो व्यवहार-संगत है पोर न बुद्धिसंगत ।"
हमारे विचार में अनुकार्य की स्थिति के प्रवबोष के लिए सर्वप्रमुख साधन है परम्परा१. प्रेक्षकोपि रामाविशम्दसंकेतमवरणाद प्रतिहसंगीतकाहितवैवश्याच स्वरूपदेशकालभेदेना.
सपाभूतेष्वपि अभिनेय चतुष्टयाSEावनात् तथाभूतेब्जिय नटेषु रामादीमध्यवस्यति ।
प्रतएव तासु तासु सुन:सपासु रामायवस्थासु तन्मयीभवति। -वही, पृष्ठ ३५२-३५३ २. उन्मिपन्निव भ्रान्तेरपि गारामयः। कामिनीवैरि-चौरादीन् प्रषिस्वप्नमभिपश्यतः पुंस:
कथम् प्रपरचा रसप्ररोहरोहिणस्तत्र स्तम्लादयोऽनुभावाः प्रादुर्भवेयुरिति ।-वही, पृष्ठ ३५३ १. निममेत पति.मानन्तो (लका) न रामाविलुसकुशेषु तन्मयी भवेयुः। -वही
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