Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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इन विकल्पों में से रामचन्द्र-गुणचन्द्र यद्यपि स्पष्टत: तीसरे विकल्प को स्वीकार करते हुए भयानक प्रादि को दुःखात्मक स्वीकार करते हैं, तथापि वे इन्हें अन्तत: सुखात्मक भी स्वीकार करते होंगे। कुछ इस प्रकार का संकेत उन्होंने स्वयं भी दिया है-पानकमाषर्यमिव च तोरणास्वादेन दुःखास्वादेन सुतरां सुखानि स्ववन्ते इति । (हि. ना० द० पृष्ठ २६१) अर्थात "जिस प्रकार पानक (खट्टे-मीठे-तीखे पेय) की मिठास दुःखस्वादजनक तीक्ष्ण पदार्थ के मिश्रण से और भी अधिक सुखास्वाद प्रदान करती है, उसी प्रकार करुण आदि रसों में भी दु:ख का मिश्रण सुखास्वाद प्रदान करता है।" वस्तुतः देखा जाए तो पानक पदार्थ और करुण रस में स्थापित यह उपमेय. उपमान सम्बन्ध यथावत एवं सुघटित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पानक में माधुयं भोर तीक्ष्णता के मिश्रण में भले ही पूर्वापर-सम्बन्ध हो, किन्तु उसके मास्वाद में पूर्वापरसम्बन्ध नहीं रहता, किन्तु करुण रस के शोक (लौकिक दुःख) और इस रस के प्रास्वाद (सुख) में निस्सन्देह पूर्वापर-सम्बन्ध बना रहता है, यद्यपि यह अलग बात है कि इनमें काल का अन्तर इतना त्वरित एवं क्षिप्र होता है कि यह कहते नहीं बनता कि इस दुःख मौर सुख में कोई काल-सम्बन्धी अन्तर है भी। अस्तु ! जो हो, रामचन्द्र-गुणचन्द्र का यह उद्धरण यह मानने के लिए पर्याप्त है कि वह उक्त विकल्पों में से तीसरे विकल्प को स्वीकार न कर चौथे विकल्प को स्वीकार करते होंगे कि भयानक, करुण आदि केवल दुःखात्मक न होकर सुखदुःखात्मक हैं । अथवा यों कहिये कि दुःखसुखात्मक है । पूर्वस्थिति में यह दुखात्मक हैं पौर अन्तिम स्थिति में सुखात्मक । यदि यही उनकी मान्यता है तो इसकी व्याख्या उपस्थित की जा सकती है । यदि वे भयानक, करुण प्रादि को नितान्त दुःखात्मक स्वीकार करते हैं तो उनकी यह धारणा काव्यशास्त्र और मनोविज्ञान के तो प्रतिकूल हैं ही, व्यवहार के भी सर्वथा प्रतिकूल होने के कारण सर्वथा अमान्य है । इस दृष्टि से विश्वनाथ का केवल एक यही तक इसे अमान्य ठहराने के लिए पर्याप्त है कि करुण प्रादि रस इसीलिए सुखात्मक है कि सहृदय जन इसे देखने के लिए सदा उन्मुख अर्थात् लालायित रहते हैं
करणादावपि रसे बायते यत्परं सुखम् । सचेतसामनुभवः प्रमाणं तत्र केवलम् । किंच तेषु यदा दुःखं न कोऽपि स्यासन्मुखः।।
सा०६० ३१४,५ रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कोई पाठक उनके सम्पूर्ण ग्रन्थ के अवलोकन के उपरान्त यह मानने को कदापि उद्यत न होगा कि उन जैसे तत्त्ववेता और चिन्तक माचार्य करण मादि को केवल दुःखात्मक ही मानते होंगे। वह इसे दुःलात्मक मानते अवश्य होंगे किन्तु पूर्वस्थिति में, पौर मन्ततः वे इन्हें सुखात्मक ही मानते होंगे।
इस मान्यता की ब्यारया कई रूपों में तथा कई दृष्टियों से की जा सकती है।
...... श्रृंगार, करुण प्रादि सभी प्रकार के रसों में रति, शोक मादि सभी स्थापिभाव अब तक विभावादि के संयोग द्वारा रसरूप में परिणत अपना अभिव्यक्त नहीं होते, तब तक उनसे लौकिक सुख अथवा दुःला का ही अनुभव होता है। उवाहरणार्थ, यदि किसी प्रेक्षक को पंगार रस के नाटक में अपनी प्रेयसी की अपवा करण रस के नाटक में अपने मृत पुष की स्मृति
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