Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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द्वारा वैसा ही उद्विग्न एवं विकलित समझ लिया गया है जैसा कि सामान्य व्यवहार में भयमीत अथवा काग्रस्त व्यक्ति को । किन्तु वस्तुतः लौकिक रति, शोक बादि भावों में तथा काव्यगत इन भावों में सदा अन्तर रहता है। लौकिक भाव एक देश, काल एवं व्यक्ति तक सीमित रहते हैं और काव्य-गत भाव प्रत्येक प्रकार की सीमा से नितान्त विमुक्त होते हैं। इसी प्रकार दूसरे तर्क में उक्त धारणा के ही बल पर लौकिक घटनाओं और काव्य-गत घटनानों को एक समान समझ लिया गया है | किन्तु यह एक अमान्य मन्तव्य है । दोनों में बहुविध तथा बहुहेतुक अन्तर रहता है। इनमें से एक अन्तर तो यह है कि काव्य में लोकिक घटनाओं के अवमान केवल यथार्थ का चित्रण न होकर यथार्थ के साथ कल्पना-तत्त्व का समिक्षण भी अनिवार्यतः रहता है । श्रस्तु ! अतः लोक मौर काव्य की पारस्परिक अनुकूलता को शाधार मानकर प्रकार्य के ही अनुरूप सहृदय के सुखदुःख का निर्णय करना मुलत: भ्रमपूर्ण है । अब तीसरे वर्क को लें। उधर लोक में पुत्र- विच्छेदविला माता के शोक में, और इधर ऐसी माता को रंगमंच पर देखकर अथवा इसके चरित्र को पढ़कर शोकविह्वल सहृदय के शोक में अन्तर है। उधर सान्त्वना से दुःख का हल्का होना, इस का कुछ क्षणों के के लिए लुप्त हो जाना अथवा इसका बढ़ जाना आदि सभी स्थितियां सम्भव हैं, किन्तु इधर शोक स्थायिभाव से उद्विग्न अथवा प्राकुल [ यदि इस स्थिति को यह नाम दें तो ] सहृदय के लिए प्रथम तो सान्त्वना प्रदान का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, क्योंकि काव्य-नाटकगत घटनामों से इतर घटनाओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं । भौर यदि उसके सम्मुख ऐसी घटनाएँ लायी भी जाती है तो उस समय वह सहृदय न होकर सांसारिक व्यक्ति मात्र रह जाता है। चतुर्थ तर्क में सत्यता भवश्य है, पर एकांगी । कवि के रचना - कौशल से और विशेषतः नट के अभिनय कौशल जन्य चमत्कार निस्सन्देह सहृदय को प्रभिभूत कर देता है। इस कथन की पुष्टि में एक प्रत्युदाहरण लीजिए कि किस प्रकार एक अत्यन्त करणोत्पादक एवं हृदयविदारक दृश्य भी एक मनाड़ी नट के असफल प्रदर्शन द्वारा करुरण के स्थान पर हास्य का रूप धारण कर लेता है । अस्तु ! कवि और नट की कुशलता से उत्पन्न चमत्कार से किसी भी स्थिति में इनकार नहीं किया जा सकता, किन्तु यह चमत्कार पूर्ववर्ती प्रभाव का उद्दीपक कारण होता है, उसका उत्पादक कारण नहीं होता । उदाहरणार्थ, शृंगार रस में वह सहृदय के रति भाव को उद्दीप्त करता है और करुण रस में उसके शोक भाव को । इसके प्रतिरिक्त उक्त कौशल-जन्य चमत्कार कवि अथवा नट की / प्रतिभा के प्रति प्रेक्षक के हृदय में प्राश्चर्यभाव भी उत्पन्न करता है । किन्तु जैसा कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र का मन्तव्य है कि इसी प्राश्चर्यभाव को करुण रस में सुख प्राप्ति का कारण नहीं मानना चाहिए। यह प्राश्चर्यभाव लौकिक होता है । मतः इससे लौकिक माह्लाद ही उत्पन्न हो सकता है, काव्यगत रस-सुखात्मक रस - उत्पन्न नहीं हो सकता ।
(२)
सों को सुखात्मक भौर दुःखात्मक स्वीकार करने वाले प्रथम माचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र नहीं है। इनसे पूर्व भी कुछ इस प्रकार के स्पष्ट कथन मिल जाते हैं।"
(क) येन त्वम्यषायि सुखदुःखजननशक्तियुक्ता विषयसामग्री बाह्यंव सुखदुःखस्वभावो दः । [ प्रज्ञात प्राचार्य] प्रभिनवभारती, भा० १ पृष्ठ २७८
१. विशेष विवरण केलिए देखिए 'रससिद्धान्त: स्वरूप-विश्लेवरण' (मानम्वप्रकाश दीक्षित)
पृष्ठ २०६-२३०..
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