Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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होती हैं, अत: यदि उनके काव्य-नाटक गत अनुकरण को सुखात्मक माना जाए तो वह अनुकरण वास्तविक न होगा, क्योंकि वह लौकिक वस्तुस्थिति से विपरीत ही रहेगा।'
३. रस को सुखात्मक मानने वालों की ओर से यह कहा जा सकता है कि जैसे लोक में विरही एवं शोकाकुल जनों के सम्मुख कारुणिक प्रसंगों का वर्णन अथवा अभिनय करने से उन्हें सुख-तान्त्वना - मिलती है, इसी प्रकार काव्य-नाटक गत करुण, भयानक मादि रस भी सुखात्मक ही है, दुःखात्मक नहीं हैं। किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि वस्तुतः ऐसे प्रसंगों में भी दुःखी जनों को जो सुखास्वाद मिलता प्रतीत होता है। मूलतः वह भी दुःखास्वाद ही है, क्योंकि यदि वही व्यक्ति दु:खपूर्ण वार्तामों से सुख-सा अनुभव प्रतीत करता है, तो प्रमोदपूर्ण वार्ताओं से [इतर जनों के समान] सुख का अनुभव न कर विकलित ही होता है । प्रतः वादियों का उक्त सहानुभूति-मूलक तकं मनस्तोषक एवं मान्य नहीं है। वस्तुत: करुण प्रादि रस दुःखात्मक ही हैं।'
४. यद्यपि भयानक, करुण भादि रस दुःखात्मक ही है, फिर भी यदि इनसे सहृदय परम आनन्द को प्राप्त करते हैं तो केवल-मात्र कवि एवं नट की कुशलता से चमत्कृत होकर ही।'
इस कथन से ग्रन्थकारों का तात्पर्य यह है कि कवि के व्यवस्थित एवं मार्मिक निरूपण को पढ़कर अथवा नट के सुन्दर एवं हृदयहारी अभिनय को देखकर हमें जो आस्वाद प्राप्त होता है, उसकी लोलुपता ही सहृदय को भयानक, करुण आदि रसों से युक्त भी काव्य-नाटकों से प्रानन्द प्राप्त कराती है तथा उन्हें बार बार पढ़ने-देखने की अोर प्रवृत्त कराती है, अन्यथा ये रस तो दुःखा. त्मक ही होते हैं। एक उदाहरण द्वारा अपने कथन की पुष्टि करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि जिस प्रकार लोक में वीर पुरुष अपने उस प्राण-घातक शत्रु को भी देखकर आश्चर्यचकित से रह जाते हैं जो प्रहार करने में अत्यन्त निपुण होता है, उसी प्रकार प्रेक्षक भी अथवा नटके कौशल द्वारा चमत्कृत हो जाते हैं।
उक्त तर्कों में से प्रथम तर्क मन के उद्वेग को लक्ष्य में रख कर प्रस्तुत किया गया है और द्वितीय तर्क लौकिक व्यवहार और काव्य-रचना की पारस्परिक अन्वति को। तृतीय तर्क लौकिक सहानुभूति एवं सान्त्वना से सम्बद्ध है और चतुर्य तकं काव्यत्व एवं अभिनय-जन्य बाह्य चमत्कार से । यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन चारों तर्को के मूल में एक ही भ्रान्त धारणा सन्निहित है कि लौकिक व्यवहार और कवि-कृति में कोई अन्तर नहीं है, ये दोनों एक ही घरातल. पर अवस्थित है। यही कारण है कि पहले तर्क में सहृदय को भी भयानक, करुण मादि रसों १. (क) कवयस्तु सुखदुःखात्मकसंसारानुरूप्येण रामाविचरितं निबध्नन्तः सुखदुःखात्मक
रसानु विडमेव प्रग्नन्ति । (ख) तथानुकार्यगताश्च करणावयः परिवेवितानुकार्यस्थात् तावद् बुखात्मका एव ।
यदि चाऽनुकरणे सुखात्मनः स्युःन सम्यग् हानुकरणं स्यातू । विपरीतस्बेन
भासनाद् इति । -वही, पृष्ठ २९१-२६२ । २. वही, पृष्ठ २६२ । ३. मनेनैव च सर्वाङ्गाद्वारकेन कविनटशक्तिजन्मना चमत्कारेण विप्रलपाः परमानन्द
रूपता दुःखात्मकेष्वपि करणाविषु सुमेषसा प्रतिजानते । -वही, पृष्ठ २६१।। ४. विस्मयन्ते हि शिरच्छेवकारिणाऽपि प्रहारकुशलेन वैरिणा शोधारमानिनः। -वही
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