Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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करुण रस-क्योंकि यह हास्य रस का विरोधी अर्थात् उसके विपरीत होता है । (४) इसके उपरान्त रौद्र रस-क्योंकि यह रस अर्थप्रधान है और अर्थ की उत्पत्ति काम से होती है। (५) इस के उपरान्त वीर रस-क्योंकि यह रस धर्मप्रधान है और धर्म की उत्पत्ति काम और अर्थ दोनों से होती है । (६) इस के उपरान्त भयानक रस-क्योंकि वीररस का मुख्य उद्देश्य है भीत जनों को अभय-प्रदान । (७) इसके उपरान्त बीभत्स रस-क्योंकि सात्त्विक जन भय के प्रति जुगुप्सा प्रकट करते हैं । (८) इसके उपरान्त अद्भुत रस-क्योंकि बीभत्स को विस्मय द्वारा दूर किया जा सकता है। (९) सब से अन्त में शान्त रस की गणना की जाती है, क्योंकि शम सब धर्मों का मूल कारण है।'
निष्कर्षतः उक्त प्रसंग में 'काम' को प्रधान माना गया है, क्योंकि इसी पर ही धर्म और अर्थ दोनों आधारित है, तथा इन तीनों के बल पर शृगार प्रादि नौ रसों की पूर्वापर-स्थिति निर्धारित की गयी है; तथा साथ ही प्रकारान्तर से शृंगार रस की प्रधानता भी सिद्ध की गयी है, क्योंकि अकेला शृंगार रस ही ऐसा है जो 'काम' से सम्बद्ध है । शृगार के अतिरिक्त अन्य रस या तो अर्थ और धर्म में से किसी एक अथवा दोनों पर अवलम्बित है अथवा एक दूसरे रस पर । इस प्रकार से रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अग्निपुराणकार एवं भोजराज की एतविषयक प्रख्यात धारण का अन्य रूप से समर्थन किया है कि शृंगार रस सर्वोपरि रस है । (४) शृङ्गार रस के दोनों भेदों का निर्णायक प्राधार
शृंगार रस के दो प्रचलित भेदों के सम्बन्ध में ग्रन्थकारों का कहना है कि ये भेद गाय के चितकबरे और काले वर्ण के समान नितान्त विभिन्न न होकर परस्पर संकुलित (मिश्रित) रहते हैं, क्योंकि एक अोर सम्भोग में विप्रलम्भ की सम्भावना बनी रहती है और दूसरी पोर विप्रलम्भ में मनोगत सम्भोग का भाव अनुस्यूत रहता है । किन्तु इस स्थिति में निर्णय उत्कटता के प्राधार पर किया जाता है। हाँ, यदि किसी पद्य में दोनों अवस्थाओं को प्रस्तुत किया जाता है तो वह मीलित (एक समान आह्लादक) चित्रण का स्थल अतिशय चमत्कार का द्योतक होता है
अवस्थाद्वयमीलननिबन्धने च सातिशयश्चमत्कार:। (हि० ना० २० पृष्ठ ३०६)
इनमें से प्रमम धारणा का आधार व्याकरणशास्त्र का यह प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि 'प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति ।' निस्सन्देह शृङ्गार के दोनों भेदों में इतर भेद का अंश संवलित रहता है और उसका व्यपदेशक आधार है किसी एक तत्त्व का प्राधान्य । किन्तु दूसरी धारणा .विचारणीय है। प्रथम तो ऐसे पद्यों का मिलना असम्भव है, जिन में सम्भोग अथवा विप्रलम्म में से किसी एक रूप की प्रधानता लक्षित न होती हो, और दूसरे, पंडितराज जगन्नाथ के शब्दों में संयोग और विप्रलम्भ का एकमात्र प्राधार अन्तःकरण की वृत्ति-विशेष है; बाह्य वातावरण नहीं है ।' रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इस प्रसंग में जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, उसी से मिलता जुलता उदाहरण जगन्नाथ ने भी इसी प्रसंग में दिया है
१, २. हि ना० २० पृष्ठ ३०५, ३०६ ३. इमो संयोगवियोगाल्यावन्तःकरणवृत्तिविशेषौ । -रसगंगाधर पृष्ठ ४१ ४. "एकस्मिन शयने पराङ्मुखतया वीतोत्तरं ताम्यतो" इत्यादि
-हि० ना० १० पृष्ठ ३०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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