Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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सम्पादकीय (क) नाट्यदर्पण में रूपकेतर काव्यशास्त्रीय प्रसंग
नाट्यदर्पण अपने नाम के अनुरूप नाट्यशास्त्रीय प्रन्य है, जिसे ग्रन्थकारों ने चार विवेको में विभक्त किया है। इन्होंने रूपक के दश मेवों में नाटिका और - प्रकरणी को जोड़कर इसके कुल बारह भेद स्वीकार किये हैं। इन जैन लेखकों ने इतनी संख्या शायद इसलिए गिनायी है कि 'जैनी' वारणी के भी १२ रूप माने गये हैं। ग्रन्थ के प्रथम विवेक में 'नाटक' नामक प्रथम रूपक-भेद का स्वरूप एवं विवेचन प्रस्तुत किया है और द्वितीय विवेक में 'प्रकरण' भादि शेष ग्यारह भेदों का। तृतीय विवेक में रसवृत्ति, रस, रस-दोष तथा अभिनय का विवेचन है तथा चतुर्थ विवेक में आपकोपयोगी अन्य सामग्री का, जिसके अन्तर्गत नायक-नायिका भेद को भी स्थान मिला है। इस प्रकार
ग्रन्थ में रूपक-सम्बन्धी प्रचलित सामग्री को एकत्र निरूपित, व्यवस्थित एवं विवेचित किया गया है। कलेवर को दृष्टि से सर्वाधिक स्थान ग्रन्थ के प्रमुख विषय रूपक को ही मिला है । इस दृष्टि से दूसरा स्थान रस का है और तीसरा स्थान नायक-नायिका भेद का। उक्त विषयों के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में कतिपय अन्य विषयों पर भी मानुषंगिक रूप से प्रकाश पड़ गया है, जैसेकाव्यप्रयोजन, काव्यहेतु, कवित्व-महिमा, प्रलंकार, वक्रोक्ति, भौचित्य, अनौचित्य, दोष मादि । इस लेख में रूपक के परिरिक्त प्रायः सभी प्रसंगों पर ग्रन्थकारों का दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। १. काव्यप्रयोजन
इस ग्रन्थ में काव्यप्रयोजन-प्रसंग को स्वतन्त्र स्थान नहीं मिला। ग्रन्थ के निम्नोत मंगलाचरण
चतुर्वर्गफलां नित्या जैनी वाचमुपास्महे ।
रूपैदशभिविश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥ --में ग्रन्थकारों ने 'जैनी' वाणी की उपासना करते हुए इसे चतुर्वर्ग-फल-प्रदायिनी कहा है और अपनी वृत्ति में इस फल को अभिनेय वाक्य अर्थात् दृश्यकाम्य के साथ भी सम्बद्ध किया है । इस सम्बन्ध में उनका मन्तव्य इस प्रकार है :
१. दृश्य काव्य द्वारा धर्म, मयं पौर काम ये तीनों फल तो प्राप्त होते ही हैं, इससे मोक्षप्राप्ति भी होती है।
२. मोक्ष-प्राप्ति का एक कारण तो यह है कि इससे सहृदय को शिक्षा मिलती है कि रामादि के समान माचरण का ग्रहण करना चाहिए और रावणादि के समान माचरण का त्याग । दूसरा कारण यह है कि धर्म नामक पुरुषार्थ की स्वीकृति कर लेने पर इसके द्वारा परम्परा-रूप से मोक्ष-प्राप्ति भी सम्भव है।' हा मोक्षप्राप्ति म फल धर्म की अपेक्षा गौण फल होता है।' १. प्रचामिनेयवापरतया इलोकोऽयं व्यायायते । पचपि सामार धर्मार्थकामफलाम्येव
नाटकाचीनि तपापि 'रामवर सितम्यं न राबसवा' इति हेयोपादेयहानोपाबानपरतया,
धर्मस्य मोलहेतुतया मोसोऽपि पारम्पर्षण फलम्। -हिन्दी नाटपर्पण पृष्ठ ११ २. मोबस्तु धर्मकार्यत्वात गौवं फलन् । -वही, पृष्ठ २१
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