Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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एवं प्रभाव से बचने के लिए] कई लोग मन्य कवियों के काव्यों द्वारा कवि बनना चाहते है । किन्तु यह प्रवृत्ति तो उक्त कलंक की भी चूलिका प्रर्थात् बद्धक है।
उक्त प्रसंग से दो विषय हमारे सामने माते है-अन्य शास्त्रज्ञान के साथ-साथ कविकर्म का भी अपेक्षित रहना तथा चौरकवि की निन्दा ।
अन्य शास्त्रज्ञान के साथ फकिकर्म में भी नैपुण्य होना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में निस्सन्देह शोभावृद्धि का कारण बन सकता है, पर इसके प्रभाव में किसी के व्यक्तित्व में न तो कलंक लगने की सम्भावना करना समुचित है। मोर न ही कवित्व को सकल विद्यानों का प्राण समझना । शास्त्र-ज्ञान बुद्धि एवं मस्तिष्क का व्यापार है और कवि-कर्म हृदय का। प्रतः शास्त्रीय चर्चा मोर कवित्व में एक दूसरे का पुट दे देने से इनमें से किसी का भी यथावत् एवं सम्यक् रूप उपस्थित नहीं होता । क्योंकि कवित्व में कल्पना एक अनिवार्य तत्व है मौर उधर शास्त्रीय चर्चा तथा कल्पना का पारस्परिक विरोध है । इस आधार पर निस्संकोच कहा जा सकता है कि शास्त्रवेत्ता को अपने सिद्धान्तों का निरूपण, प्रतिपादन प्रयवा सम्पादन करते समय कविकर्म की नितान्त अपेक्षा नहीं रहती। यदि कविकर्म से तात्पर्य पद्य-निर्माण है तो यह तात्पर्य संकुचित सीमित एवं एकदेशीय होने के कारण यथार्थ नहीं है, मौरन ही रामचन्द्र-गुणचन्द्र को सम्भवतः यही तात्पर्य अभीष्ट होगा। प्रतः कवित्व को सकल विद्यामों का 'प्राण' समझना मनुचित है। यदि कविकर्म से तात्पर्य 'पद्य-निर्माण' ले भी लिया जाए तो भी मुद्रण-यन्त्र के इस युग में हर शास्त्रीय अथवा लौकिक चर्चा को पच-बद रूप में प्रस्तुत करना हास्यास्पद एवं प्रवाञ्छनीय है । हो, यदि कोई शास्त्रवेत्ता कवि भी है तो यह विशिष्टता जैसे कि ऊपर कह पाए है उसके व्यक्तित्व में शोभा-वृद्धि का कारण बन जाएगी, किन्तु इसका प्रभाव उसके कलंक का कारण किसी भी रूप में नहीं है।
पौरकवि की निन्दा जितनी को बाए पोड़ी है। दूसरों की रचना को अपना बताने वाला तो चोर है ही, किन्तु दूसरों का भावापहरण करके उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत करने वाला तो पहले प्रकार के चौर कवि की अपेक्षा कहीं अषिक दम्भी है, प्रतः अधिक परापी प्रौर निन्दनीय है । ऐसे 'कवियों' की निन्दा भनेक रूपों में की गही है। इस सम्बन्ध में काम्पशास्त्रियों में राजशेखर के और कवियों में बाणभट्ट के कपन प्राय: उक्त किए जाते है। इसमन्ध के हिन्दी व्याख्याकार प्राचार्य विश्वेश्वर ने राजशेखर के उबरण प्रस्तुत किये है (. पृष्ठ ६) बाणभट्ट ने चौरकवियों की भर्त्सना हुए कहा है।
भन्यवलपरावृत्या वि । मनाया सता मध्ये विवीरो बिवाव्यते ॥
हर्षचरितम् १६ १, प्राणः कवित्वं विधान सावधानिय योषिताम् ।
विषयेविनोऽप्यस्म ततो नित्यं तिस्पृहा ॥ नासिकान्ते हवं वित्र प्रयोग रमायो। कुचामावः पुरनाक्याः काम्यामातो, विपश्चितः ॥ प्रकवित्वं परस्तावत् कल पाठशालिनान् । सम्यकाम्यैः कवित्वं इमरस्यापि निका।
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