Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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(२) जो वृत्त नायक अथवा प्रकृत रस के प्रयुक्त अथवा विरुद्ध हो उसे या तो छोड़ देना चाहिए, अयवा उसकी अन्यथा कल्पना कर लेनी चाहिए ।।१।१८) यहां 'अन्यथा' शब्द से स्वयं ग्रन्थकारों का अभिप्राय है औचित्य अथवा अविरोध-अन्यथेति औचित्येनाऽविरोधेन वा। उदाहरणार्थ, नलविलास में नल जैसे धीरललित नायक द्वारा निरपराध पत्नी का त्याग यद्यपि अनुचित है किन्तु कापालिक के प्रयोग से वह [उचितता-(प्रोचित्य-) पूर्वक निबद्ध हो गया है, अतः यह प्रसंग अनिबन्धनीय नहीं है । (पृष्ठ ३६)
(३) जिस प्रकार नाटक में अभिनय प्रबन्ध के लिए उपयुक्त फल, अंक, उपाय, x xx रस प्रादि का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार प्रकरण में भी इन सब का प्रयोग मौचित्य (उचितता) का उल्लंघन किये बिना करना चाहिए --."अभिनेयप्रबन्योचितं फलाडोपाय.."रसादिकं यथा नाटके लक्षितं तथाऽत्रापि सावित्याऽनतिन रणऽऽयोग्यम् ।" (पृ० २१२)
घ) निर्वेद आदि तेतीस संचारिभाव शृगाराम रसों में यशायोग प्रयुक्त करने चाहिए : "त्रयस्त्रिशत् यथायोगं रसानां व्यभिचारिणः ।" यहां यायोग' का तात्पर्य है-रसों के मौचित्य (उचितता) का अनुल्लंबर अर्थात् इसका सम्यक् पालन --- 'यरायोगम्' इति रसौचित्या. ऽनतिक्रमेण ।
(हि. ना. द० पृष्ठ ३३१) उक्त उद्धरणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 'मोचित्य' दाद का प्रयोग क्षेमेन्द्र-सम्मत औचित्य-सिद्धान्त के पारिभाषिक अर्थ में न किया जाकर 'उचितता' अर्थ में किया गया है, यद्यपि यह अलग बात है कि मूलता जो कुछ क्षेमेन्द्र को अभीष्ट है लगभग वही कुछ रामचन्द्र-गुणचन्द्र को भी प्रभीष्ट है । क्षेमेन्द्र के शब्दों में 'उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते', किन्तु उन्होंने क्षेमेन्द्र के समान साक्षात् अथवा असाक्षात् रूप में इसे 'काव्य को जीवित स्वीकार नहीं किया।
() मनौचित्य
इस ग्रन्म में कतिपय स्थलों पर 'मनौचित्य' शब्द का भी प्रयोग हुया है । एक स्थल पर यह पांच रसदोषों में से एक रसदोष है। पांच रसदोष है-पनौचित्य, अंग की उग्रता, अपुष्टि, प्रत्युक्ति मोर मङ्गिभित् । इनमें से 'मनोचित्य' नामक रसदोष का स्वरूप है-वह कर्म जो सहृदयों के मन में विचिकित्सा प्रर्यात शंका अथवा सन्देह का कारण बने-सहरयानां विचिकित्सा-हेतु कर्मानौचित्यम् । (पृष्ठ ३२४)
प्रागे चलकर इसी प्रसंग में मनौचित्य को 'रसदोष' का पर्याय स्वीकार करते हुए अन्धकारों ने कहा है कि यद्यपि अंगों की उग्रता मावि शेष चार रसदोष भी मूलत: 'अनौचित्य' नामक दोष में ही मन्तर्भूत हो सकते है, [अत: इनका पृथक् निरूपण नहीं करना चाहिए], तथापि सहृदयों को अनौचित्य अर्थात् रसदोष का सम्यक ज्ञान हो जाए, इसलिए ऐसा किया गया है"मंगोत्र पादयाच बोषाः परमार्थतोऽनौचित्यान्तःपातिनोऽपि सहृदयानामनौचित्यव्युत्पादनार्षभुदाहरणत्वेनोपासाः । पृष्ठ (३२८)
उक्त दोनों स्थलों से भी यही ज्ञात होता है कि 'अनौचित्य' शब्द क्षेमेन्द्र-सम्मत पारिभाषिक 'प्रौचित्य के प्रभावात्मक प्रर्ष में प्रयतन होकर रसदोष पर्य में ही स्वीकत दया है।
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