Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( * ) (२) इसी प्रकार श्रृंगार रस के निम्मोक्त प्रसंग में भी वक्रोक्ति से अभिप्राय है सुन्दर वार्तालाप, न कि कुन्तक-सम्मत वक्रोक्ति---
प्रथमः सम्भोगायो बहुः । परस्परावलोकन-मान-विचित्रयोक्त्यादिभेवतोऽनन्तप्रकारः।
----हि० ना० ६० पृष्ट १०७ (३) प्रामुख-प्रसंग में 'वक्रोक्त' (वक्रोक्ति) साम्ब का प्रयोग 'स्पष्ट वचन से विपरीत' भर्य में हुअा है : मुख में सूत्रधार को प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है-स्पष्ट भौर वक्रोक्त।" वक्रोक्त से तारार्य है साक्षात् विवक्षित अर्थ का अप्रतिपादक कथन--"वक्रोक: साक्षाद् विवक्षितार्थस्याप्रतिपादन :,' अर्थात् वह वचन को स्पष्टतया न कहा जा कर घुमा-फिरा कर कहा जाए, जैसा कि संस्कृत नाटकों के 'भामुख' में प्राय: व्यवहृत होता है ।
(४) रसदोष-प्रसंग में 'वक्रोक्ति' शब्द का प्रयोग ता नहीं हुमा, 'मवक्रोक्ति' का हुमा है । यहाँ 'वक्रोक्ति' से अभिप्राय है-युक्त, उचित, मान्य, संगत मादि । रस, स्थायिभाव, व्यभिचारिभाव, प्रादि की स्वशब्दवाच्यता का सर्वप्रथम संकेत उद्भट ने किया था, तथा कुन्तक, मम्मट मादि भाचार्यों ने इसे एक दोष माना था, किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इस दोष-कल्पना को प्रयुक्त कहा है, तथा इसे भव्युत्पन्न जनों की उक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए इसे 'प्रवक्रोक्ति' अर्थात् प्रयुक्त, अनुचित, अमान्य, असंगत धारणा माना है : 'तस्माद् मयुर सनोक्तिस्वाववक्रोक्तिरेवेयम्' (हि. ना० द०)। उक्त धारणा प्रयुक्त है अथवा नहीं, यहाँ यह विचारणीय नहीं है । विचारणीय यह है कि क्या 'वक्रोक्ति' शब्द का अर्थ 'युक्त' मांदि भी हो सकता है ? शन्द के वाच्यार्थ से तो इस अर्थ का बोध नहीं होता, हाँ यदि खेंचतान की जाए तो वक्रोक्ति = काव्य का बाह्य साधन% काष्य का उपयुक्त अथवा युक्त, मान्य, उचित तत्व । प्रतः वक्रोक्ति का अर्थ हुआ युक्त पौर प्रवक्रोक्ति का प्रयुक्त । किन्तु इस धारणा से मनस्तुष्टि नहीं होती। सम्भवतः यह पाठ ही प्रशुद्ध . हो । अथवा 'वक्रोक्ति' शब्द का अर्थ काव्यत्व भी लिया जा सकता है, जिसके अनुरूप 'प्रवक्रोक्ति' का प्रथं होगा--'काव्यत्व से बहिष्कृत' । प्रस्तु! यह शम्न यहाँ 'मप्रयुक्त' कोष से दूषित है।
(२)
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में निम्नोक्त स्थल पर यद्यपि 'वक्रता' अथवा 'वक्रोक्ति' शब्द का बहार नहीं किया गया, तथापि जिस धारणा को वहाँ प्रस्तुत किया गया है उसका मूल प्राधार अचन की वक्रता ही है । 'वीथी' नामक रूपक-मेव के १३ अंगों में से १० मंग है मृदैवम् - जिसका लक्षरः है।जसमें गुण और दोष का पारस्परिक व्यत्यय हो-व्यत्ययो पोषयौः मुदवम् ।' (हि. ना. ४० पृष्ठ २६३) । इस प्रकार 'मृदद' नामक वीथ्यत के दो रूप हैं गुणों का दोष बन माना और दोषों का गुण बन जाना । प्रथम रूप के बाहरण-स्वरूप नाट्यदर्प में तीन उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं जिनमें गुण को दोष बताया गया है। इनमें से प्रथम दो उदाहरण लीजिए १. विदूषकनटी मार्षः प्रस्तुताक्षेपि भाषणम् ।
सूत्रधारस्य वझोत स्पष्टोतं यत् तवामुखम् ॥ २. पित्त व्यभिचारिरसस्पायिनो स्वशम्बवायरवं रसबोधमा, तभन्न् ।
हि २०१० पुल ३२८
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