Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( ६६ )
(क) द्यूत सभा में बेचारी द्रोपदी 'गौ: गो:' [अर्थात् में तुम्हारी 'गी' हूँ, मुझे बचाश्रो, मुझे बचाओ ] चिल्लाती रही किन्तु उस समय क्या धनुर्धारी अर्जुन वहाँ नहीं था जो उसे बचा सकता ? 'वेणीसंहार' में दुर्योधन जयद्रथ की माता की चेतावनी को अवहेलना करते हुए बोले ।
(ख) [मेरे आने पर ] तुम्हारे मुखचन्द्र ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया, नेत्रों ने प्रफुल्लित होकर, बाहुग्रों ने रोमाञ्चित होकर और वाणी ने गद्गद् स्वर को धारण करके, किन्तु तुम्हारे कुचदन्द्रों में कोई परिवर्तन नहीं आया, वे वैसे के वैसे कठोर प्रर्थात् जड़ बने रहे," 'नलविलास' में नल आगतपतिका दमयन्ती से बोले ।"
पहले पथ में अर्जुन का 'धनुषंरत्व' और दूसरे पद्य में कुचद्वन्द्वों की 'कठोरता' - यद्यपि ये दोनों गुण है तथापि इन्हें दोष रूप में स्वीकृत किया गया है। इन उदाहरणों से दो बातें स्पष्ट हैं । एक यह कि यहाँ 'गुण' शब्द काव्यगुणों का सूचक न होकर लौकिक गुणों का सूचक है, घोर दूसरी यह कि इस प्रकार की दोषता का आधार वचन की वक्रता है जिससे गुण दोष न बन कर और भी अधिक निखर आता है तथा काव्य-सौन्दर्य का कारण बनता है ।
इसी प्रकार दोष के गुग्गग्ग बन जाने के सम्बन्ध में भी जो उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। उनमें सभी दोष काव्य-दोष के सूचक न होकर लौकिक दोषों के सूचक हैं तथा दे गुण रूप में दरित किए जाने पर भी ग्राह्य न बन कर त्याज्य बन गये हैं। इस वर्णन प्रकार का मूल प्राधार भी वचन की वक्रता ही है । दो उदाहरण लीजिए : २
(क) द्रोण, कर्ण, जयद्रथ प्रादि सात महारथियों द्वारा अभिमन्यु के वध का समाचार सुनकर दुर्योधन कह उठा कि शत्रु पर किया गया अपकार भी निःसन्देह अत्यन्त प्रानन्ददायक होता है ।
(ख)
सब की पत्नियाँ सुन्दर नहीं होतीं, परनारीगामी पुरुष राज्यदण्ड का भागी बनता है, X X X X X X, यदि दूसरों के हित में संलग्न वेश्यायें न हों तो बेचारे कामातं जन कहां जायें ?
प्रथम पद्य में 'क्षात्रधर्म का परित्याग' रूप दोष गुरण माना गया है, भोर द्वितीय पद्य में 'वेश्यागमन' रूप दोष भी गुण रूप में स्वीकार किया गया है । किन्तु इन दोनों पद्यों के वक्ताभों के प्रति न तो कवि की सहानुभूति है और न ही उसके अनुरूप सहृदय की । अतः वचन वक्रता के आधार पर ये दोनों लौकिक दोष और भी अधिक त्याज्य रूप में वरिणत हो गये हैं ।
औचित्य और अनोचित्य
मौचित्य
इस ग्रन्थ में 'प्रोचित्य' का प्रयोग निम्नोक्त चार स्थलों पर हुआ है
(१) कवि धीरोदात्त प्रादि मुख्य पात्र के लिए] अपनी गच्छा से किसी फल- विशेष का उत्कर्ष वरिणत नहीं करने लग जाता, अपितु 'प्रोचत्य' अर्थात् उनिता को देखकर ही वह ऐसा करता है : "कविरपि न स्वेच्छया फलस्य उत्पषं निबद्धमर्हति किन्तु प्रोचित्येन ।" (पृष्ठ ३०)
१-२ हिन्दी ना० ४० पृष्ठ २६३-२६५ ।
७.
(क)
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