Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( ६१ )
उन तीन कथनों से स्पष्ट है कि भाभूषणों का प्रयोग जहाँ सजीव एवं सुन्दर शरीर की अपेक्षा रखता है, वहां मौचित्य भी उसके लिए अनिवार्य तत्व है । काव्यगत प्रलंकारों के शोभावह प्रयोग में भी इन्हीं दोनों तत्त्वों की अनिवार्यता अपेक्षित है - ( १ ) प्रलंकारों का सरस काव्य में प्रयोग (२) सरस काव्य में भी अलंकारों का भौचित्यपूर्ण प्रयोग । एक प्रोर यदि शव, यति-शरीर अथवा यौवनवन्ध्यवपु पर श्राभूषणों का श्रवधारण एक कोतुहल मात्र है, तो दूसरी मोर नीरस काव्य में भी अलंकार प्रयोग का अन्य नाम 'उक्तिवैचित्र्य मात्र' है - 'यत्र तु नास्ति रसः तत्र ( अलंकाराः) उक्तिवैचित्र्यमात्रपर्यवसायिनः । जिस प्रकार हाथों में नूपुरों का और चरणों में केयूरों - का बन्धन समुचित नहीं है, उसी प्रकार विप्रलम्भ शृङ्गार में भी यमक आदि का बन्धन समुचित नहीं है । तात्पर्य यह कि लौकिक और काव्यगत दोनों प्रकार के अलंकारों का जीवन और उनकी प्रलंकारिता उचित स्थानविन्यास पर ही प्राश्रित है। फिर भी शरीर सौन्दर्य की अपेक्षा काव्यसौन्दर्य अधिक संवेदनशील है । उदाहरणार्थ रकार का अनुप्रास विप्रलम्भ शृंगार के एक उदाहरण में रस का उपकार करता है तो टकार का अनुप्रास उसी ही रस के दूसरे उदाहरण में रस का उपकार नहीं करता।' तभी मम्मट को प्रलंकारों के विषय में लिखना पड़ा - क्वचित्तु सन्तमपि नोपकुर्वन्ति । स्पष्ट है कि एक ही रस के दो उदाहरणों में कोमल वर्णं 'रकार' और कठोर वर्ग 'टकार' की साता प्रथमा प्रसह्यता का उत्तरदायित्व भौचित्य के ही सद्भाव अथवा प्रभाव पर निर्भर है ।
जहाँ तक शब्दालंकारों भौर अर्थालंकारों के पारस्परिक तारतम्य का प्रश्न है, संस्कृत का काव्यशास्त्री शब्दालंकारों के प्रयोग के मनोचित्य के विषय में अपेक्षाकृत अधिक प्राशंकित रहा है। यही कारण है कि दण्डी जैसे प्रलंकारवादी ने भी अनुप्रास मौर यमक के प्रति अपनी अवहेलना प्रकट की है, * प्रोर रुद्रट जैसे प्रलंकारप्रिय प्राचार्य ने अनुप्रास अलंकार की स्वसम्मत मधुरा, प्रोढा प्रादि पाँच वृत्तियों के औचित्यपूर्ण प्रयोग पर विशेष बल दिया है। मानन्दवर्द्धन ने अनुप्रास बन्ध के विषय में एक चेतावनी दी है कि 'श्रृंगार के सभी प्रभेदों में अनुप्रास का बन्ध सदा एक सा प्रभिव्यंजक नहीं हुआ करता । प्रतः कवि को इस अलंकार के श्रौचित्यपूर्ण प्रयोग के लिए विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। शृङ्गार विशेषतः विप्रलम्भ शृङ्गार में यमक का (शब्दश्लेश, चित्र भादि का भी) प्रयोग कवि के प्रमाद का सूचक है । कुन्तक अनुप्रासमयी रचना की प्रतिनिबद्धता का० प्र०, ८ उल्लास, पृष्ठ ३०
१.
२. (क) काव्यस्यालमलंकारैः किं मिथ्यागरण तंग गंः ।
यस्य जीवितमोषित्यं विचिन्त्यापि न दृश्यते । प्रो०वि०च० पृ० ४ (ख) उचित स्थानविन्यासावलंकृतिरलंकृतिः । वही पृ० ६ ।
३. देखिए मम्मट द्वारा उद्धृत दोनों उदाहरण --
(क)
प्रपसारय घनसारम्
..... ।
(ख) घिसे विट्टरिए टट्टावि' (का० प्र० ८ म उल्लास )
का० द० १ । ४३, ४४, ६१.
४.
५.
का० प्र० २ । ३२.
६. (क) शृङ्गारस्यांगिनो यत्नादेकरूप
11
सर्वेष्वेवप्रभेदेषु नानुप्रासः प्रकाशकः ॥ ध्व० २ ! १४ ॥
(ख) ध्वन्यात्मभूतशृङ्गारे यसकाविनिबन्धनम् ।
शक्तावपि प्रभावित्वं विप्रलम्भे विशेषतः ॥ व० जी० २ । ४.
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