Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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( ६२ )
( संकुलता - पूर्ण बद्धता) के पक्ष में नहीं है, और यदि ऐसी रचना हो भी जाए; तो उसे असुकुमार नहीं बनाना चाहिए' । भट्टलोल्लट (?) के मत में यमक श्रादि शब्दालंकार रस के प्रतिविरोधी हैं । इनका प्रयोग कवि के अभिमान का सूचक है, अथवा भेड़चाल के समान है । "
इन सब प्राचार्यों के अनुरूप रामचन्द्र- गुणचन्द्र ने भी अलंकार विशेषतः श्लेष अलंकार को अपने उक्त कथन में रस के गलन अर्थात् भंग का कारण माना है ।
हमने देखा कि शब्दालंकारों के मौचित्य को समझाते समझाते संस्कृत का श्राचार्य कहीं कहीं उनका विरोध और निषेध तक कर बैठा है। पर प्रर्थालंकारों के प्रयोग का निषेध वह किसी अवस्था में करने को उद्यत नहीं है । वह इन्हें स्वस्थ रूप में देखना चाहता है । अलंकार का स्वस्थ रूप है - रस, भाव श्रादि का अंग बन कर रहना । उसे यह रूप देने के लिए एक प्रबुद्ध afa को विशेष प्रकार के समीक्षरण की सदा प्रपेक्षा रखनी चाहिए। का प्रयोग करते चले जाना कवि की स्वेच्छा पर भी निर्भर नहीं है समझे जाएंगे, जब ये रस में दत्तचित्त, प्रतिभावान् कवि के सामने किसी प्रयत्न के बिना रचना में रसानुकूल समाविष्ट होकर स्वयं कवि को भी माश्चर्यचकित कर दें । निष्कर्ष यह कि मर्थालंकारों के प्रौचित्यपूर्ण प्रयोग की कसौटी है - प्रपृथग्यत्न- रूप से रसानुकूलता की प्राप्ति
इसके अतिरिक्त अर्थालंकारों के उपकारक तभी
।
हाथ जोड़े चले आएं, " अर्थात्
रसाक्षिप्ततया यस्य बन्धइशक्यक्रियो भवेत् ।
पृथग्यत्ननिर्वत्यः सोऽलंकारो ध्वनौ मतः ॥ ध्वन्या २ । १६ ।
मौर यदि शब्दालंकारों का भी, रसोपयोगी बन कर अपृथग्यत्न- रूप से, रचना में स्वत: समावेश सम्भव होता, तो संस्कृत के प्राचार्यों ने अर्थालंकारों के समान इन्हें भी निश्चित ही समान महत्त्व दे दिया होता ।
ये ध्वनि
अर्थालंकारों का मौचित्यपूर्ण प्रयोग करने के लिए मानन्दवर्द्धन ने निम्न साधनों में से किसी एक का आश्रय लेने की सम्मति दी है
( १ ) अंगीभूत रस के प्रति रूपक प्रादि श्रलंकारों का सदा मंगरूप से विवक्षा करता ।
(२) अंगीरूप में अलंकारों की विवक्षा कभी न करना ।
(३-४) प्रवसर पर इनका ग्रहण अथवा त्याग करना ।
१. नातिनिबन्धविहिता, नाप्यपेशलभूषिता । व० जी० २ । ४ ।
२. यमकानुलोमतदितरचक्राविभिदो तिरसविरोधिन्य । प्रभिमानमात्रमेतद् गङ्कुरिकावि प्रवाही वा ॥ का० अनु० (हेम) पृष्ठ
३.
४. रसभावादितात्पर्यमाश्रित्य विनिवेशनम् ।
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प्रलंकृतीनां सर्वासामलंकारत्वसाधनस् ॥ ब्व० पृ० १२२ ।
५. अलंकारान्तराणि - रससमाहितचेतसः प्रतिभावते: कवेरहम्पूविकया परापतन्ति ।
(ध्वग्या० २।१६। वृत्ति)
ध्वन्या० २ । १८, १९
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