Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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'इस सम्मान में विधारसरह है कि विवह स्वीकार किया जाता है कि मोमिकता' नाम का तस्व नितान्त दुर्लभ है, तो भावसाम्प के माधार पर किसी की मखना क्यों की जाए? भावसाम्य का एक कारण तो मानव-मन का ऐक्य है । विभिन्न देश और काल में वर्तमान व्यक्तियों ने जो कि प्रत्येक दृष्टि से एक दूसरे से अप्रमावित है एक ही प्रकार के विचार प्रकट किये है। निस्सन्देह इस प्रकार का भावसाम्य उपस्थित करने वाला व्यक्ति किसी भी रूप में अपराध तथा निन्दा का पात्र नहीं है। कभी कोई बात, कोई घटना अथवा कोई विचार पढ़ा-सुना जाने.पर हमारे हृदय के किसी कोने पर जा पड़ता है और फिर कमी परिस्थितिवश जागृत होकर अनायास वारणी अपवा लेखनी द्वारा निःसृत हो जाता है और भाव-साम्य का कारण बन जाता है। किन्तु इस प्रकार की साम्पता पर मानव का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि नतो वह दूसरों के विचारों को अपने मन में संस्कार रूप में प्रसुप्त होने से रोक सकता है और न ही उन्हें अभिव्यक्त होने से । कभी हम दूसरों के विचारों को पड़ और सुनकर .. उन्हें नवीन एवं व्यवस्थित रूप में प्रतिपादित करने के लिए लालायित हो उठते है और उन्हें निबन्ध, कविता, नाटक, कहानी उपन्यास प्रादि के रूप ढाल देते हैं। निस्सन्देह यह प्रक्रिया भी निन्दनीय नहीं है, क्योंकि इससे पूर्व भावों को नवीन दिशा मिलती है, हमारी, कल्पना का संयोग पा कर ये भाव कहीं अधिक स्पष्ट, विशद, ग्राह्य एवं प्रभावशाली बन जाते हैं। इस पुनराम्यान-प्रक्रिया को चाहें तो मौलिकता का नाम भी दे सकते हैं। पूर्वज्ञात भाव हमारी कल्पना का योग पाकर यदि नवीन रूप में प्रतिपादित हो जाएं तो इसे 'मौलिकता' मान लेने में अधिक मापत्ति भी नहीं होनी चाहिए । भव देवल शेष एक रूप रह जाता है जो प्रत्यन्त भसनीय है, वह है-दूसरे के भावों का बाह्य कलेवर बदल देना, दूसरे के शब्दों के स्थान पर अपने शब्दों मोर दूसरों की वाक्यवली के स्थान पर अपनी वाक्यवली को रखते चले जाना पोर इस दम्भ की प्रारमें कपि पौर विचारक कहलाना । यह प्रवृत्ति पूर्णतः त्याज्य है। ४. अलंकार
ग्रन्थ के मूल भाग में निम्नोक्त स्थलों पर प्रकार की चर्चा हुई है :
१. कथा मादि का मार्ग प्रलंकारों द्वारा कोमल होने के कारण सुखपूर्वक संचरसीय है, किन्तु नाटक का मार्ग रस की कल्लोलों से परिपूर्ण होने के कारण प्रत्यन्त पठिन है।'
२. वह पाणी को श्लेष अलंकार से पुरु होने पर भी रसप्रवाह से रहित होने के कारण कठोर होती है वह [भोक्ता के मन को उस प्रकार प्रमुस्मित नहीं करती जिस प्रकार दुर्भग [भात यौन रस न निकलने के कारण कठोर भग पानी] स्त्रियां [पुरुषों को माहादित नहीं करती।'
३. नाटक नामक रूपक में प्रबंधारा रस का बलन मात् स्खलन अथवा भंग नहीं होना चाहिए : पाकमावता ॥१॥ १. अलंकारमृतः पापाः कवादीमा पुसम्परः ।
कुसन्धारस्तु नाट्यस्म सालोलासंकुमः ॥ १॥ २. इलेवालंकारमानोऽपि रसानियनकक्षा।
दुर्मगार कामिन्यः पीपन्तिममनो विरः ॥१॥
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