Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
आशीर्वचन
५५
-.
-
.
-.
-
.
-.
-.
-.
-
.
-
.
-
.
-
.
-.
-
.
-
.
-.
-.
-.
-.
समय के सूक्ष्म अन्वेषक
साध्वी श्री नीतिश्री धावक केसरीमलजी ने अपने जीवन काल में अनेकानेक क्षणशः कणशश्चेव विद्यामर्थ च चिन्तयेत् । उतार-चढ़ाव देखे-लोगों को बनते-बिगड़ते देखे, गिरते- क्षणत्यागात् कुतो विद्या कणत्यागात् कुतो धनम् ।। उठते देखे । परन्तु सुराणाजी अनुकूल और प्रतिकूल परि- क्षण-क्षण का मूल्य समझने वाला विद्वान् बन जाता है स्थितियों में भी अपने संकल्पों पर दृढ़ रहे। यही कारण और क्षण-क्षण को व्यर्थ गमाने वाला मूर्ख ही रह जाता है; रहा कि मुश्किल शब्द उनके शब्दकोष में स्थान प्राप्त न कण-कण का संग्रह करने वाला धनाढ्य बन जाता है और कर सका।
नहीं करने वाला दरिद्र ही रह जाता है। श्री सुराणाजी श्रावक केसरीमलजी समय के मूल्य को आँकने वाले ने इस उक्ति को चरितार्थ किया है । जिस संस्था का हैं-अपनी साधना में सतत जागरूक रहकर प्रत्येक कार्य अभ्युदय केसरीमलजी द्वारा हुआ, उसका भार केसरीमलजी को सूक्ष्म अन्वेषण से पूर्ण करने में विश्वास रखते हैं। जैसे सशक्त व्यक्ति के कन्धों पर होने से इसकी प्रगति किसी कवि ने ठीक कहा है
दिनोंदिन हो रही है।
00 आस्थाओं के सिंहासन पर आरूढ़
0 साध्वी श्री राजीमती किसी भी युग में किसी व्यक्ति विशेष को इसलिए वह महान् है जिसने विवेक-जल से भरी संयम-सरिता का महान् नहीं माना जाता कि वह श्रीसम्पन्न है, शिक्षित अवगाहन करके स्वयं को धोया है और उसके साथ ही है तथा अन्य ऐसे ही किसी कारण से विश्व-मंच पर अपना अपने प्रिय पार्थिव शरीर को समाजहित में बलिदान प्रभुत्व स्थापित कर सका है । इतिहास इस बात का किया है। प्रमाण है कि जो व्यक्ति पदारूढ़, राष्ट्र-सेवा और श्री सुराणाजी को समाज-विशेष की आस्थाओं के साहित्य-निर्माण को प्राप्त हुआ है, वह मात्र बाह्य एवं सिंहासन पर आरूढ़ होने का जो गौरवपूर्ण अधिकार अल्पकालीन सुयश का हेतु है । त्याग और भोग, स्वार्थ मिला है, वह इसी तपोसाधना और चिरस्मरणीय और परमार्थ, अध्यात्म और विषय-भोग इन दोनों सेवाओं का परिणाम है। मैंने देखा कि इस व्यक्ति में विपरीत-पक्षों में से अक्षत गुजरने की क्षमता न सत्ता से एक सीमा तक सत्य से लगाव है और असत्य से भयंकर प्राप्त होती है और न अर्थ-विस्तार से। इसके लिए विद्रोह है। जो समाज और अध्यात्म दोनों को क्षति चाहिए सत्य की गहराइयों को छूने वाली सूक्ष्म-दृष्टि पहुंचाए बिना पूरा जीवन जी लेता है, वह सामाजिक क्षेत्र और स्वस्थ-चिन्तन । प्राचीन अध्यात्म-परम्परा के अनुसार में 'प्रमाण-पुरुष' हो सकता है।
विसर्जन के पुनीत प्रतीक
10 साध्वी श्री निर्मलाश्री (सरदारशहर) विसर्जन श्रावक की प्रथम भूमिका है । समाज की का संयम । दान में मान-सम्मान और पूजा-प्रतिष्ठा की स्वस्थता का प्रथम सूत्र और अध्यात्ममार्ग का प्रथम आकांक्षा बनी रहती है और विसर्जन में अनासक्ति व सोपान है । विसर्जन का अर्थ केवल देना व छोड़ना ही विरक्ति के भाव भरे रहते हैं। अर्जन और विसर्जन के नहीं है। विसर्जन का अर्थ है-पदार्थ से जुड़ा ममत्व क्रम को न समझने के कारण ही आज समाज विशृखलित और आसक्ति से पूर्ण अलगाव तथा व्यक्तिगत स्वामित्व होता जा रहा है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org