Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।' न केवल जैन परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग की बाह्य परम्परा का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चिन्तन उपलब्ध है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है, जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययन में किया गया है। अंगुत्तरनिकाय में यह के आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण करते हुए बुद्ध कहते हैं कि "हे ब्राह्मण, ये तीन अग्नियाँ त्याग करने, परिवर्जन करने के योग्य हैं, इनका सेवन नहीं करना चाहिए। वे कौन-सी हैं ? कामाग्नि, ट्रेवाग्नि और मोहाग्नि । जो मनुष्य कामाभिभूत होता है वह काया-वाचा-मनसा कुकर्म करता है और उससे मरणोत्तर दुर्गति पाता है। इसी प्रकार द्वेष एवं मोह से अभिभूत भी काया-वाचा-मनसा कुकर्म करके दुर्गति को पाता है। इसलिए ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्जन के लिए योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिए ।" "हे ब्राह्मण इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भली भाँति, सुख से करें। ये अग्नियाँ कौन सी हैं ? आह्वनीयाग्नि (आहुनेययग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपतग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणय्यग्गि)। माँ-बाप को आह्वनीयाग्नि समझना चाहिए और बड़े सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिए। पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि समझने चाहिए और आदरपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। हे ब्राह्मण ! यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती है, कभी उसकी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है। इस प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट किया। मात्र इतना ही नहीं उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन से बेकारी का नाश करना बताया । न केवल जैन एवं बौद्ध परम्परा में वरन् गीता में यज्ञ-याग की निन्दा की गई और यज्ञ के सम्बन्ध में उसने भी सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की। सामाजिक सन्दर्भ में गीता में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज-सेवा करना यह गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता है-कि योगीजन संयम रूप अग्नि में श्रोतादि इन्द्रियों का हवन करते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु जो प्राण कहलाता है, उसके संकुचित होने 'फैलने' आदि कर्मों को, ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्मसंयम रूप योगाग्नि में हवन करते हैं । आत्मविषयक संयम का नाम आत्मसंयम है, वही यहाँ योगाग्नि है। घृतादि से प्रज्वलित हुई अन्नि की भांति विवेक विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान-समाधिरूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में (वे प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन में यज्ञ के जित आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया उसका अनुमोदन बौद्ध परम्परा और गीता में भी उपलब्ध है। तत्कालीन अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों के प्रति नया दृष्टिकोण
जैन दिचारकों ने अन्य दूसरे नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की बाह्य शौच या स्नान को, जो कि उस समय कर्मकाण्ड और नैतिक जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, एक नया आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ
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उत्तरा० १२१४४. अंगुत्तरनिकाय-सुत्तनिपात-उद्धृत भगवान् बुद्ध, पृ० २६. देखिए-भगवान् बुद्ध २३६-२३६. गीता, ४।३३, २५-२८. उत्तरा० १२१४६ ।
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