Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
संलेखना: स्वरूप और महत्त्व
२३५
-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.......................................
......
दिगम्बर परम्परा के तेजस्वी नक्षत्र समन्तभद्र को 'भस्मरोग' हो गया और उससे वे अत्यन्त पीड़ित रहने लगे। उन्होंने अपने गुरु से संलेखना व्रत की अनुमति चाही । पर उनके सद्गुरुदेव ने अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्होंने देखा कि इनका आयु-बल अधिक है, इनसे जिन-शासन की प्रभावना होगी।
संथारे की विधि संलेखना के पश्चात् संथारा है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की दृष्टि से संथारा ग्रहण-विधि इस प्रकार है। सर्वप्रथम एक निरवद्य शुद्ध स्थान में अपना आसन जमाये । उसके पश्चात् वह दर्भ, घास, पयाल आदि में से किसी का संथारा बिछौना बिछाए फिर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके बैठे। उसके पश्चात् “अह भंते अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा-झूसणा आराहणाए आरोहेमि" "हे भगवन् ! अब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन एवं आराधना करता हूँ।" इस प्रकार प्रतिज्ञा ग्रहण करता है। उसके बाद नमस्कार महामन्त्र, तीन बार वन्दना, इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरी करणेणं, लोगस्स का पाठ व उसके पश्चात् ऊपर का पाठ बोलकर तीर्थंकर भगवान की साक्षी से इस व्रत को ग्रहण करे । फिर निवेदन करे कि-"भगवन ! मैं अभी से सागारी या आगाररहित संथारा-भक्तप्रत्याख्यान करता हूँ ,चारों आहार का त्याग करता हूँ। १८ पापस्थानों का त्याग करता हूँ। इस मनोज्ञ, इष्ट, कान्त, प्रिय, विश्वसनीय, आदेय, अनुमत, बहुमत, भाण्डकरण्डक समान, शीत-ऊष्ण, क्षुधा, पिपासा, आदि मिटाकर सदा जतन किया हुआ, हत्यारे चौरादि से, डांस-मच्छर आदि से रक्षा किया हुआ व्याधि, पित्त, कफ, वात सन्निपातिक आदि से भी बचाया हुआ विविध प्रकार से स्पर्शो से सुरक्षित, श्वासोच्छ्वास की सुरक्षा प्राप्त इस शरीर पर मैंने जो अब तक मोह-ममत्व किया था, उसे अब मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ, मुझे कोई भी चिन्ता न होगी। क्योंकि अब यह शरीर धर्म पालन करने में समर्थ न रहा, बोझरूप हो गया, आतंकित या अत्यन्त जीर्ण अशक्त हो गया।"
"उपासक दशांग" में आनन्द श्रमणोपासक बहुत वर्षों तक गृहस्थ जीवन के सुखों का उपभोग करते रहे। जीवन की सान्ध्यवेला में वे स्वयं पोषधशाला में जाते हैं और "दब्भ संथारयं संथरई" दर्भ का संथारा बिछाते हैं। धर्म प्रज्ञप्ति स्वीकार कर विविध तप-कार्यों द्वारा उपासक प्रतिमाओं की आराधना करते हुए शरीर को कृश करते हैं। जिसे हम संथारा कहते हैं वह अनशन का द्योतक है। आगम साहित्य में संथारा का अर्थ "दर्भ का बिछौना" है। "सलेखना" शब्द का प्रयोग----भासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सट्ठि भत्ताइं अणसणए छेदेत्ता"।
"प्रवचनसारोद्धार" में लिखा है-साधक द्वादशवर्षीय उत्कृष्ट संलेखना करके तदनन्तर कन्दरा, पर्वत, गुफा, या किसी निर्दोष स्थान पर जाकर पादपोपगमन या भक्त प्रत्याख्यान या इंगिनीमरण को धारण करे। सारांश यह है कि संलेखना के पश्चात् संथारा ग्रहण किया जाता था। यदि ऐसा कोई आकस्मिक कारण आ जाता तो संलेखना के बिना भी संथारा ग्रहण कर समाधिमरण को वरण किया जाता था।
संथारा-संलेखना का महत्त्व __ संथारा-संलेखना करनेवाला साधक धर्मरूपी अमृत को पान करने के कारण ससार के जितने भी दुःख हैं वह उन दुःखों से मुक्त हो जाता है, तथा निःश्रेयस् अभ्युदय के अपरिमित सुखों का प्राप्त करता है। पण्डित आशाधर ने कहा है--जिस महासाधक ने संसार परम्परा को सम्पूर्ण रूप से उन्मूलन करने वाले समाधिमरण को धारण किया है उसने धर्मरूपी महान् निधि को परभव में जाने के लिए साथ ले लिया है। इस जीव ने अनन्त बार मरण
१. द्वादशवार्षिकोमुत्कृष्टां सलेखनां कृत्वा गिरिकन्दरं गत्वा उपलक्षणमेतद् अन्यदपि षट् कायोपमई रहितं विविक्तं स्थानं गत्वा पादपोपगमनं वा शब्दाद् भक्तपरिज्ञामिगिनीमरणं च प्रपद्यते ।
-प्रवचनसारोद्धार, १३४. २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ५-६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org