Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन धर्म के मूल तत्त्व : एक परिचय
२७७
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अनेकान्तवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु अनंत गुण-पर्याय व धर्मों का अखण्ड पिण्ड है। वस्तु को हम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नहीं है। उसमें अनंत दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट स्वरूप अनंतधर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालुम होता है उस पर ईमानदारी से विचार करो तो उसका विषयमूल धर्म भी विद्यमान है, चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजो, वह भी मौजूद है। आधुनिक वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सापेक्षवाद इसी का वैज्ञानिक रूप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अनेकान्तवाद की खोज भारत की न्याय प्रणाली का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसको जितना अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीव्र स्थापित होगी। स्याद्वाद भी लगभग यही है।
जैन धर्म का त्रिरत्न (सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) धर्माचरण की जीवन पद्धति है। गीता में कृष्ण ने इसको ज्ञान, कर्म व भक्ति कहा है। त्रिरत्न में पहला स्थान सम्यक्दर्शन का है जिसके पालन के लिए आवश्यक है मनुष्य तीन प्रकार की मूढ़ताओं व आठ प्रकार के अहंकारों का विसर्जन करे । यह तीन मूढ़ताएँ हैं(१) लोकमूढ़ता; (२) देवमूढ़ता व (३) पाखण्डमूढ़ता। नदियों में स्नान करने से पुण्य होता है, यह लोकमूढ़ता का उदाहरण है। रागी-द्वेषी देवताओं को वीतराग मानना देवमूढ़ता है और साधु फकीरों के चमत्कारों में विश्वास करना पाखण्डमूढ़ता है। जैन धर्म में यह सभी अन्धविश्वास त्याज्य हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विश्व के प्रथम बुद्धिवादी (Rationalist) भगवान महावीर हैं । ग्रीक दार्शनिक उनसे २०० वर्ष बाद में है। यह न केवल जैन धर्म किन्तु भारत के लिए भी गौरव की बात है। इसी प्रकार मुमुक्षु को ८ प्रकार के अहंकारों को छोड़ना अनिवार्य है। (१) अपनी बुद्धि का अहंकार; (२) अपनी धार्मिकता का अहंकार; (३) अपने वंश का अहंकार; (४) अपनी जाति का अहंकार ; (५) अपने शरीर व मनोबल का अहंकार; (६) चमत्कार दिखाने वाली शक्तियों का अहंकार; (७) अपने योग व तपस्या का अहंकार; (८) अपने रूप व सौन्दर्य का अहंकार । इतनी तैयारी हो लेने पर ही साधक को सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है। इन त्रिरत्न के साथ ५ (पाँच) अणुव्रत व महाव्रत भी जैन धर्म के आधार स्तम्भ है । यह है-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य, (५) अपरिग्रह । यह अणुव्रत गृहस्थ के लिये अनिवार्य हैं किन्तु इनका कठोरता से पालन करना महाव्रत है जो श्रमणों के लिये है। जैन धर्म में मनुष्य के विकास के १४ गुणस्थानों का भी वर्णन है जो जीवन विकास की प्रक्रिया है। मनुष्य ज्ञान व चारित्र में विकास करते-करते जब १३वें गुणस्थान में पहुँच जाता है तब उसको केवलज्ञान हो जाता है और फिर मोक्ष प्राप्ति हो जाती है, वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है। इसी प्रकार जीवन को मलीन करने वाले कषायों का भी वर्णन है जिन पर विजय प्राप्त करना जरूरी है। ऊपर जो कुछ इतिहास लिखा गया है वह जैन धर्म के दार्शनिक व व्यावहारिक पहलू पर ही लिखा गया है किन्तु थोड़ा-सा ऐतिहासिक पहलू व उसके योगदान पर भी लिखना समीचीन होगा। कुछ विद्वानों का मत है कि जैन पन्थ का मूल उन प्राचीन परम्पराओं में रहा होगा जो आर्यों के आगमन से पहले यहाँ प्रचलित थीं पर इसे न मानकर, आर्यों के आने के बाद ही जैन परम्परा मानें तो भी ऋषभदेव व अरिष्टनेमि को लेकर जैन परम्परा वेदों तक पहुंचती है। महाभारत युद्ध के समय इस सम्प्रदाय के नेता नेमिनाथ थे जिन्हें जैन अपना २२वाँ तीर्थकर मानते हैं । ईसवी पूर्व ८वीं सदी में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ था। जैन धर्म का पहला श्रमण संगठन पार्श्वनाथ ने किया। ये श्रमण वैदिक प्रथा के विरुद्ध थे और महावीर व बुद्ध के काल में जैन व बौद्ध होकर इन दो धर्मों में विलीन हो गये।
जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर महावीर वर्धमान हुए, जिनका जन्म ईसवी पूर्व ५६६ में हुआ था। वे ७२ वर्ष की अवस्था में मुक्त हुए। महावीर ने निर्वाण के पहले जैन धर्म को परिपुष्ट कर दिया। जब सिकन्दर भारत आया था तब उसे जैन साधु सिन्धु के तट पर तपस्यारत मिले थे। इतिहासवेताओं की मान्यता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य मृत्यु से पहले जैन हो गया था।
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