Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ५६१ ..........................................................................
चरित्र-चित्रण-सफल कवित्व वह है, जिसमें कवि अपने प्रतिपाद्य का वस्तुचित्र खींच सके । चरित्र-चित्रण में आचार्य भिक्ष ने जो अभिनव काव्य-कौशल प्रदर्शित किया है, वह सचमुच ही अद्भुत है। उनके कवित्व का यह सहज गुण है कि वे अपने प्रतिपाद्य का ऐसा सुन्दर और मार्मिक भावचित्र प्रस्तुत करते हैं, कि गेय-काव्य भी चित्रपट की तरह दृश्यमान लगने लगता है। अभया रानी सुदर्शन के प्रथम दर्शन मात्र से ही आसक्त होकर अपनी मनोवांछा की पूर्ति के लिए पण्डिता धाय से निवेदन करती है
मुझ एक मनोर ऊपनो, बस न रहयो मन मांय । ए बात लजालु छ घणी, तो ने कह्याँ बिन सरे नाय ।। हूं वसन्त रितु खेलण गई, राय सहित वन मंझार । तिण ठामें चम्पा नगरी तणा, आया घणा नर-नार ।। पुत्र सहित परिवार सू, तिहां आयो सुदर्शन सेठ ।
ओर सेठ घणाई तिहां आविया, ते सहु सुदर्शन हेठ॥ तिणरा अणियाला लोयण भला, जाणेक सोभे मसाल । मुख पूनमचन्द्र सारखो, तेहनो रूप रसाल । काया कंचन सारखी, सूर्य जिसो प्रकाश । सीतल छै चन्द्रमा जिसी, हंस सरीखो उज्ज्वल छ तास ।। जेहोनें दीठां ओरख्यां ठर, जेहनो सोम सभाव । तिण आगे बिजा स्यूं बापड़ा, कुण राणा कुण राव। म्हारो मन लागो तेह सू, जाणे रहूं सेठ रे पास । एहवो मनोरथ मांहरो, रात दिवस रही छु विमास ॥ तिण सू भूख त्रिखा भूले गई, निसदिन रहूं उदास । मन म्हारो कठेई लागे नहीं, तिण तूं कही छ तो पास ॥ हूं मोही सुदर्शन सेठ सू, लागो म्हारो रंग।
तिण सूमिलू नहीं त्यां लगे, नित नित गलै छै म्हारो अंग ॥ रानी की मनोकामना सुनकर पण्डिता धाय अनेक युक्तियों, उपमाओं एवं उदाहरणों से उसे समझाने का प्रयास करती है, जो अत्यन्त मार्मिक और हृदयस्पर्शी हैइसड़ी बातां हो बाई कहे मूढ गिवार, थे राय तणी पटनार ।
ए बात थांने जुगती नहीं। ऊँचा कुल में हो बाई थे ऊपना आण, बले थे छो चतुर सुजाण ।
ए नीच बात किम काढिए । एक पीहर हो बाई दूजो सासरो जाण, बिहुँ पख चन्द समाण ।
दोनूकुल छै थारा निर्मल ॥ इण बातां हो बाई लाजै तुम तात, बले लाजै तुम मात ।
पीहर लाजै तुम तणो । एहवी बातां हो बाई लाजै माय मूसाल, निज कुल साम्हो निहाल ।
त्याने लागै घणी मोटी मेंहणी ॥ इण बातां हो बाई लागै कुल ने कलंक, लागै पीढ्याँ लग लंक ।
ते सुण-सुण माथो नीचे करै ।
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