Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तमिलनाडु में जैन धर्म और जैन-संस्कार
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गया था और आन्ध्र से इसका प्रवेश तमिलनाडु और क्रमशः दक्षिण के अन्य प्रदेशों में हो गया । भद्रबाह स्वामी जब मूनि संघ के साथ दक्षिण में पधारे तो उस समय जैन धर्म का उपर्युक्त आधार अवश्य रहा होगा, तभी उन्होंने भिक्ष के संकट के समय में दक्षिण प्रस्थान का यह जोखिमभरा कदम उठाया। वस्तुस्थिति कुछ भी हो, लेकिन यह सही है कि तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अति प्राचीनकाल से चलता आ रहा है।
तमिलनाडु में जैन धर्म के आज भी बहुत से अवशेष प्राप्त होते हैं । कांची के पास तिरूपत्तिकुन्नु में प्रथम और अन्तिम तीर्थकर क्रमश: ऋषभदेव और वर्धमान के दो भव्य मन्दिर थे, इसी कारण इस स्थान का दूसरा नाम जिनकांची है। यहाँ से बहुत से शिलालेख भी मिले हैं। ये शिलालेख जैन धर्म और संस्कृति पर अच्छी खासी सामग्री उपलब्ध कराते हैं। यही नहीं, पोलूर नामक स्थान से लगभग दस मील दूर तिरूमल नामक गाँव और इसी नाम की एक पहाड़ी है। यहाँ पर अभी भी जैन मतावलम्बियों का निवास है। इनमें से कुछ घरों में जैन धर्म के बहुत से ग्रन्थ भी बताए जाते हैं । दक्षिण आरकाट जिले का पाटलीपुर गाँव कभी जैन गुरुओं का केन्द्र था। सित्तन्नवासल में अनेक जैन गुफाएँ, मन्दिर व मूर्तियाँ मिलती हैं। सित्तन्नवासल का अर्थ है-सिद्धों या जैन साधुओं का वास स्थान । तमिल में 'सित्त' का अर्थ है सिद्ध और 'वासल' का अर्थ है, निवास स्थान । इस क्षेत्र में 'सित्तवणकम्' आज भी प्रचलित है। इस सित्तवणकम् का अर्थ होता है.--'सिद्धों को नमस्कार'। नारट्टामलै नाम की पहाड़ी पर भी जैन धर्म व संस्कृति के अवशेष पाये जाते हैं । आलट्टीमल नाम की पहाड़ी पर भी सित्तन्नवासल की तरह प्राकृतिक गुफाएँ हैं जो जैन धर्म से सम्बन्धित हैं । मदुरा, अज्जनन्दि आदि स्थानों पर तो जैन धर्म के अवशेष बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं । 'अरगमकुप्पम्' गाँव अरिहंतों के गाँव के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। कडलू में जो विशाल खण्डहर व अन्य अवशेष प्राप्त होते हैं, उनके लिये ऐसा कहा जाता है कि वहाँ पर कभी एक बहुत बड़ा जैन विश्वविद्यालय था। यह सब इसलिये संभव हो सका कि यहाँ पर अनेक दिग्गज जैनाचार्य जैन शासन की प्रभावना के लिए आए। कुछेक जैनाचार्य यहीं जन्में, जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया और इसी भूमि पर समाधिमरण से मृत्यु का वरण किया। उनमें अकलंक, गुणभद्र आदि मुख्य रहे हैं। कुछ आचार्यों का आगमन तो इस भूमि के लिए ऐतिहासिक माना जाता है। उनके आने से जैन धर्म का प्रभाव जन-मानस पर ही नहीं, राजाओं पर भी पड़ा । क्रमश: जैन धर्म राज-धर्म बन गया । सर्वत्र जैनों का प्रभुत्व और प्रभाव बढ़ने लगा। विशाल जैन मन्दिरों की भी जगह-जगह स्थापना होने लगी। सर्वत्र जैन धर्म को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा।
जैन धर्म यहाँ के जन-मानस में जब पूर्णरूपेण आत्मसात् हो गया तब जैनाचार्यों, संतों और विद्वानों की लेखनी तमिल भाषा में चली। जैन दर्शन और साहित्य पर अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गये। तमिल भाषा को इससे सुसम्पन्न होने का अवसर मिला । कन्नड भाषा भी इससे लाभान्वित हुई। 'नालडीयार' और 'इलंगो अडिगल' जैसे श्रमण संतों का योग विशेष उल्लेखनीय रहा । यह निर्विवाद सत्य है । यहाँ का विद्वत् समाज भी बहुत गौरव के साथ इस बात को स्वीकार करता है और यह भी मानता है कि यदि इस भाषा से प्राचीन जैन साहित्य निकाल दिया जाय तो इस भाषा में रिक्तता आ जायेगी।
तिरूक्कुरल नाम का सुप्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ यहाँ बहुत सम्मान और आदर के साथ पढ़ा जाता है । इस ग्रन्थ का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । ग्रन्थ के रचयिता तिरूवल्लुवर माने जाते हैं । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा था। ऐसा भी माना जाता है कि तिरूवल्टुवर कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। किंवदन्ती के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि इस ग्रन्थ के वाचन का प्रोग्राम राजसभा में रखा गया था। कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं उपस्थित नहीं हुए। उन्होंने तिरूवल्लुवर को भेजा। उसका वाचन तिरूवल्लुवर ने किया था। अत: उनके नाम से प्रसिद्ध हो गया। यह सत्य है कि यह जैन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के आरम्भ में आदि-भगवान को नमस्कार किया है।
धर्म अमृत है, पर अमृत के नाम से जहर कितना उगला गया। धर्म व्यापक है पर व्यापकता के नाम पर संकीर्णता कितनी बरती गयी । धर्म अहिंसा है पर अहिंसा के नाम पर हिंसा कितनी हुई, इसका एक ज्वलन्त उदाहरण
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