Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
भारतीय कला का क्रमबद्ध इतिहास मौर्यकाल से प्राप्त होता है। मौर्यकाल में मगध जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था। इस काल की तीर्थकर की एक प्रतिमा लोहानीपुर' (पटना) से उपलब्ध हुई है। प्रतिमा पर मौर्यकालीन उत्तम ओप है । बैठा वक्षस्थल तथा क्षीण शरीर जैनों के तपस्यारत शरीर का उत्तम नमूना है। पार्श्वनाथ की एक कांस्य मूर्ति जो इसी काल की मानी जाती है, कायोत्सर्गासन में है। यह प्रतिमा सम्प्रति बम्बई के संग्रहालय में संरक्षित है।
शुगकाल में जैन धर्म के अस्तित्व की द्योतक कतिपय प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं। लखनऊ-संग्रहालय में सुरक्षित एक शुग-युगीन कवाट पर ऋषभदेव के सम्मुख अप्सरा नीलांजना का नृत्य चित्रित है। इस काल के आयागपट्ट कंकाली टीला से उपलब्ध हुए हैं । विवेच्ययुगीन कला का एक महत्त्वपूर्ण रचना-केन्द्र उड़ीसा में था। भुवनेश्वर से ५ मील उ०प० में उदयगिरि खण्डगिरि पहाड़ियों में जैन धर्म की गुफाये उत्कीर्ण हैं । उदयगिरि की हाथीगुफा में कलिंग नरेश खारवेल का एक लेख उत्कीर्ण है, जिससे द्वितीय शती ई० पू० में जैन तीर्थ कर प्रतिमाओं का अस्तित्व सिद्ध करता है।
शुग-कुषाणयुग में मथुरा जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ के कंकाली टीले के उत्खनन से बहुसंख्यक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें अर्हत नंद्यावर्त की प्रतिमा प्रमुख है, जिनका समय ८६ ई० है । यहाँ से उपलब्ध जैन मूर्तियों का बौद्ध मूर्तियों से इतना सादृश्य है कि यदि श्रीवत्स पर ध्यान केन्द्रित न किया जाय तो दोनों में भेद करना सहज नहीं है।
कुषाण युग के अनेक कलात्मक नमूने मथुरा के कंकाली टोले से प्राप्त हुए हैं। इनमें लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित आयागपट्ट (क्रमांक जे० २४६) महत्वपूर्ण है । इसकी स्थापना सिंहनादिक ने अर्हत पूजा के लिए की थी। कुषाण संवत् ५४ में स्थापित देवी सरस्वती की प्रतिमा भी प्रतिमा-विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । जैन परम्परा में सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण कुषाण-युग से निरन्तर मध्ययुग (१२वीं शती) तक सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा है।
विवेच्य युग में मुख्यत: तीर्थकर प्रतिमायें निर्मित की गई जो कायोत्सर्ग एवं पद्मासन में हैं। कंकाली टीले के दूसरे स्तुप से उपलब्ध तीर्थंकर मूर्तियों की संख्या अधिक है। इनकी चौकियों पर कुषाण संवत् ५ से १५ तक के लेख हैं । प्रतिमाएं ४ प्रकार की हैं
१. खड़ी या कायोत्सर्ग मुद्रा में जिनमें दिगम्बरत्व लक्षण स्पष्ट है। २. पद्मासन में आसीन मूर्तियां । ३. प्रतिमा सर्वतोभद्रिका अथवा खड़ी मुद्रा में चौमुखी मूर्तियां, ये भी नग्न हैं। ४. सर्वतोभद्रिका प्रतिमा बैठी हुई मुद्रा में ।
मथुरा-संग्रहालय में एकत्रित ४७ जैन मूतियों का व्यवस्थित परिचय डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने वहां की सूची के तृतीय भाग में कराया है। इनमें महाराज वासुदेव कालीन संवत्सर ८४ की आदिनाथ की मूति (बी४),. पार्श्वनाथ की मूर्ति (बी० ६२) एवं नेमिनाथ की प्रतिमा (२५०२) महत्त्वपूर्ण हैं । कुषाणकालीन मथुरा कला में तीर्थकरों के लांछन नहीं पाये जाते हैं।
१ निहाररंजन रे, मौर्य एण्ड शुग आर्ट, चित्रफलक २८, कम्प्रिहेनसिव हिस्ट्री आफ इण्डिया-सं० के० ए० नीलकण्ठ
शास्त्री, चित्रफलक ३८. २ स्टडीज इन जैन आर्ट-चित्रफलक २, आकृति ५. ३ जर्नल आफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, भाग २, पृ० १३. ४ भारतीय कला-वासुदेवशरण अग्रवाल, प० २८२-८३, चित्र क्रमांक ३१८.
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