Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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राजस्थान: स्वातन्त्र्य संघर्ष और जैन समाज
[D] प्रो० तेजसिंह तरुण
इतिहास विभाग,
तिलक बी० एड० महाविद्यालय, डबोक, जिला उदयपुर (राज० )
I
प्रायः जैनियों के बारे में यही माना जाता रहा है कि यह एक व्यावसायिक जाति है और त्याग बलिदान की जगह स्वार्थ एवं शोषण के लिए ही प्रसिद्ध है। किन्तु अब तक के प्राप्त तथ्यों ने इस प्रचलित धारणा को झूठला दिया है। अगर विस्मृत पृष्ठों को देखें तो लगता है कि जैन समाज का निर्माण त्याग एवं तपस्या के आधार पर ही हुआ है और सदैव इसका इस दृष्टि से एक विशिष्ट स्थान रहा है । साहस एवं विवेक का सामंजस्य जिस तरह इस समाज में देखने को मिलता है, वह अन्यत्र देखने को उपलब्ध नहीं है। जब-जब भी देश में क्रान्ति का बिगुल बजा है जैनियों ने उसे अपना समर्थन ही नहीं दिया अपितु उसे तन-मन-धन से सींचा और बुद्धिचातुर्य से आगे भी बढ़ाया । भगवान महावीर का समय लें अथवा मध्यकाल के प्रताप के समय की बात करें, जैन समुदाय सदैव आगे रहा है। भगवान महावीर ने देश को नई दिशा देकर सम्पूर्ण व्यवस्था को नई दिशा दी और सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया तो भामाशाह ने प्रताप के स्वातन्त्र्यभाव को आगे बढ़ाने के लिए अपनी सम्पूर्ण जमा राशि उनके चरणों में समर्पित की। ऐसे विकट समय में यदि भामाशाह अर्थ सहयोग नहीं करते तो सम्भव था प्रताप लड़खड़ा जाते । लेकिन भामाशाह ने अपने शासक के मनोभावों को पढ़ा और त्याग का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। यही नहीं बल्कि स्वतन्त्रता के लिए युद्ध भूमि अथवा समाज में नेतृत्व प्रदान करने की दृष्टि से भी अनेकानेक जैन महापुरुष आगे रहे हैं, मेहता अगरचन्द, कोठारी बलवन्तसिंह, जालसी मेहता और इन्द्रमल सिंघी, दयालशाह आदि अनेक नाम ऐसे हैं जो शौर्य और पराक्रम के क्षेत्र में सदैव स्मरणीय रहेंगे। इन त्यागियों और बलिदानियों के आधार पर हम यह कहने में गर्व का अनुभव करेंगे कि जैन समाज केवल एक व्यावसायिक जाति ही नहीं है बल्कि समय आने पर वह देश और समाज को क्रान्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर सकने का सामर्थ्य रखती है ।
स्वातन्त्र्य काल और जैन-बन्धु
भी इस
जब सम्पूर्ण देश में स्वतन्त्रता की हवा बहने लगी तो न केवल राजस्थान में बल्कि सर्वत्र जैन बन्धु महायज्ञ में अपने सामर्थ्य के अनुसार सम्मिलित हुए और वह सब कुछ किया जो माँ भारती की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक हो गया था । अँग्रेजों एवं सामन्तों के विरोध में जेलें भरी, यातनाएँ भोगीं, घर-बार छोड़े और आवश्यकता पड़ने पर अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया ।
मेरे उपरोक्त कथन की प्रामाणिकता के लिए केवल एक और दो नाम नहीं बल्कि अनेक नाम हैं । इस परम्परा में जयपुर के अर्जुनलाल सेठी, उदयपुर के मोतीलाल तेजावत, बांसवाड़ा के दामचन्द्र दोषी, बूंदी के हीरालाल कोट्या (डावी), कोटा के हीरालाल जैन व नाथूलाल जैन, छोटीसादड़ी के फूलचन्द बया, जोधपुर के आनन्दराज सुराणा और उगमराज सराफ आदि कई ऐसे नाम हैं जो अपने सिर पर कफन बाँधकर स्वातन्त्र्य - आन्दोलन में शाहादत के लिए तैयार थे । सेठीजी तो वह राष्ट्रीय हस्ती थी जिनके घर-आँगन में सदैव ही कफन बाँधे लोग भरे रहते थे । आजाद चन्द्रशेखर व रासबिहारी बोस से सेठीजी का सीधा सम्पर्क था और इन्हीं क्रान्तिकारियों की परम्परा में राजस्थान में माणकचन्द, मोतीचन्द जयन्द और जोरावरसिंह जैसे कई मतवालों को सेठीजी ने तैयार किया। दिल्ली के 'बम-केस' में स्वयं श्री सेठीजी का नाम था ।
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