Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तेरापंथ के महान् श्रावक
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कलकत्ता में लाल कपड़े का व्यापार अच्छा चला । कुछ ही वर्षों में इनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई। इनके पुत्र श्रीचन्दजी जब कमाने में होशियार हो गये तब इन्होंने देश जाने का प्रत्याख्यान कर लिया। जीवन की सन्ध्या में इन्होंने निवृत्तिप्रधान जीवन जीया।
(१३) श्री चेनरूपजी दूगड़-चेनरूपजी सरदारशहर के रहने वाले थे। ये स्वाभिमानी और धन के धनी व्यक्ति थे। आज तो इनका परिवार अर्थ से अत्यधिक सम्पन्न है किन्तु चेनरूपजी अपनी बाल्यावस्था में बहुत गरीब थे। घर की दयनीय अवस्था ने मजदूरी करने के लिए विवश कर दिया । एक बार किसी सेठ के यहाँ हवेली पर इनको काम मिला । मिस्त्री ने इनको गारे की तगारियाँ भर-भर कर लाने को कहा। कहीं कोई गलती हो गई होगी उस पर मिस्त्री ने उसके शिर पर करणी की मार दी। चेनरूपजी उस समय २१ वर्ष के थे। राज मिस्त्री के इस अपमान से उनके स्वाभिमान को बहुत चोट पहुँची । आगे के लिए उन्होंने मजदूरी नहीं करने का संकल्प कर लिया। उन्होंने बंगाल जाकर व्यापार शुरू करने का निर्णय किया। इतनी लम्बी यात्रा करने के लिए उनके पास कोई साधन नहीं था। आखिर पैदल यात्रा करने का निश्चय किया। वे अपनी धुन के पक्के थे। साढ़े तीन महिने निरन्तर चलकर वे बंगाल की राजधानी कलकत्ता पहुँचे। उन्होंने अपनी प्रथम सुसाफिरी में ही हजारों रुपयों का लाभ कमाया। वे एक साहसी व्यक्ति थे । व्यापार में उतार-चढ़ाव आने पर भी वे हिम्मत नहीं हारते थे। कलकत्ता में इनका व्यापार जमता गया । थोड़े ही वर्षों में इनका परिवार लखपतियों की गणना में आने लगा। इतना धन पास में होने पर भी वे धन के अभिमान से दूर थे । जीवन सादगी-प्रधान था । जयाचार्य के प्रति इनके मन में अटूट श्रद्धा थी।
(१४) श्री रूपचन्दजी सेठिया-सुजानगढ़ निवासी सुप्रसिद्ध श्रावक रूपचंदजी का जीवन अगणित विशेषताओं का पुज था । इन्होंने पाँच आचार्यों की सेवाएँ की। आचार्यों के ये कृपा-पात्र थे। शासन के अन्तरंग और हितगवैषी श्रावक थे । बचपन से ही इनमें धार्मिक संस्कार थे। साधु-साध्वियों के सम्पर्क से ये संस्कार निरन्तर वर्धमान होते रहे। इनके हर व्यवहार में धर्म की पुट रहती थी। पाप से जितना बचा जा सके उतना बचने का वे प्रयास करते थे। इनकी संयमप्रधान वृत्ति के कारण लोग उन्हें “गृहस्थ साधु" के आदरास्पद नाम से पुकारते थे। ये गृहस्थ वेष में साधु के समान रहते थे। हर क्रिया में बड़ा विवेक रखते थे। ३२ वर्ष की पूर्ण युवावस्था में पति-पत्नी दोनों ने ब्रह्मचर्य का पालन करना शुरू कर दिया था। पाँच वर्ष तक साधना करने के बाद आचार्य डालगणी के पास इन्होंने यावज्जीवन ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया। इनके जीवन में अनेक त्याग थे। गृह-कार्यों में जैन संस्कारों को प्रधानता देते थे। डालगणी के ये निकटतम श्रावकों में से प्रथम कोटि के थे। जब डालगणी ने अपने पीछे शासन व्यवस्था करने की बात सोची तब श्रावक रूपचंदजी से परामर्श लिया। जब अन्य श्रावकों को अन्दर आने की मनाही होती तब भी रूपचंदजी के लिए रास्ता खुला रहता था। अन्तिम समय में भी उन्हें अच्छा धर्म का साज मिला । सं० १९८३ में उन्होंने जीवन को पूरा किया था। उस वर्ष कालूगणी उनको प्रातः और सायंकाल स्थंडिलभूमि से पधारते समय दर्शन देते थे । कभी-कभी विराजकर सेवा भी करवाते थे। फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को रात के समय ठिकाने में एक साथ अद्भुत प्रकाश हुआ। कालुगणी ने मन्त्रीमुनि को फरमाया-लगता है रूपचंदजी का शरीर शांत हो गया है। वस्तुत: उसी समय एक बजे के करीब उन्होंने शरीर को छोड़ा था। करीब १ घण्टा ५ मिनिट का संथारा भी आया।
(१५) श्री छोगमलजी चौपड़ा-समाजभूषण श्री छोगमलजी चौपड़ा गंगाशहर निवासी थे। उस समय जबकि समाज में शिक्षा को गौण समझा जाता था, छोगमलजी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातक (बी० ए०) की उपाधि प्राप्त की थी। थली में ओसवाल समाज के शायद ये पहले स्नातक थे। वे एक सफल वकील थे । वकालत करते हुए भी असत्य का प्रयोग नहीं करते थे। झूठे मामले को वे कभी स्वीकार नहीं करते थे। मारवाड़ी समाज के प्रथम बेरिस्टर कालीप्रसादजी खेतान उनके बारे में कहा करते थे कि न्यायालय में जैसी प्रतिष्ठा उनकी थी वैसी अन्य किसी की सुनने को नहीं मिली। उनका जीवन सादगी-प्रधान था। धर्मशासन को इन्होंने बहुत सेवाएँ दी
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