Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तेरापंथ सम्प्रदाय और नयी कविता
६२१
अपराध गढ़ती है। नव-धनाढ्यों की एकान्तिक विलासिता में सूरज बाधा डालता है, अँधेरे में भोग की उत्कण्ठाओं को झुठलाता है । लेकिन सच यह भी है कि आम आदमी भी इसी अँधेरे का फायदा उठाने के लिए तत्पर रहता है। 'सूरज को फाँसी' कविता का आलेख है
अभियोग यह था उस पर कि हमारी कामनाओं के रंगीन प्यालों तश्तरियों को तोड़-फोड़कर उसने असभ्यता का परिचय दिया परदों में छिपी हमारी नग्नता को उघाड़कर
उसने अश्लीलता का परिचय दिया।' विलासिता के ये ही नजारे नये संत्रास को जन्म देते हैं, नारी को भोग यन्त्र बनने को विवश करते हैं, चमड़ी का ब्यापार (Skin Trade) चलाते हैं । जहाँ मानवता उसके भ्रूण में ही होम हो जाती है। अर्ध विराम में (पृष्ठ ४१) इसीलिए तो कवि का व्यंग्य है
आदमी-अस्तित्वबोध का झूठा अभिमान,
जानवर-एक सीधा सादा इन्सान ? एक्सरे शरीर के अवयवों का तो चित्र प्रस्तुत कर देता है, अन्ततम का नहीं। पर कवि ने मनुष्य के अन्तस का चित्र खींचने के लिए मना कर दिया है, क्योंकि
यह गिरगिट इतनी जल्दी रंग बदलता है कि तुम्हारी सचाई
झूठ में बदल जायेगी। विज्ञान तटस्थ न्याय का प्रतीक है, पर सभ्यता के हाथों उसकी तटस्थता भी संदेहशील हो उठेगी । आज का आदमी स्वार्थ-केन्द्रित है, समूह मानवता के जीवन मूल्यों की उपेक्षा कर रहा है । इसीलिए वह विज्ञान जैसे रचनात्मक प्रयत्नों को भी ध्वंस में परिणत कर देता है
पक्षी, मानव की तरह घर बनाना तो जानता है लेकिन दूसरे घर को
ढहाना नहीं जानता। स्वार्थलिप्त यह आनवता आज घुटन, आक्रोश, निरर्थकता के इन परिदृश्यों में जिन्दा लाशें बन गई है, यद्यपि इन लाशों में कवयित्री नयी गीति संवेदना से स्फुरित करना चाहती है (साक्षी है शब्दों की, पृ० ३६)।
(४) ईश्वरीय आस्थाओं पर प्रश्न-चिह्न-वैज्ञानिक बुद्धि के विकास के साथ मानव का सम्बन्ध मानवेतर से स्खलित होकर सम्पूर्ण मानवता में ही केन्द्रित हो गया, अतः संवेदना और नैतिकता, भावना और ईश्वर-कल्पना का रूप परिवर्तन हो गया । मूल्यों की परिवर्तनीयता भी मानव सापेक्ष हो गई। इसीलिए कवि ईश्वर के अस्ति-नास्ति के तर्कानुमान से ऊपर उठकर उसकी यशःकीर्ति के प्रति भी सन्देहशील हो जाता है
१. अर्धविराम, पृ० ३३ २. गूंजते स्वर : बहरे कान, पृष्ठ ३८ । ३. साक्षी है शब्दों की, पृ० ४५ ४. आचार्य हजारीप्रसाद के उपन्यास, बी० एल० आच्छा, पृ०६
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