Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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नयचन्द्रसूरिकृत - हम्मीर महाकाव्य और सैन्य व्यवस्था
DISC
भाग० २, पृ० २००.
२. हम्मीर महाकाव्य, सर्ग ३, श्लोक ५१-६४.
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अपने सम्पूर्ण सम्ययल का उपयोग करता है। विदेशी सैनिक बारी-बारी से युद्ध में उतरते हैं, भागते हैं और पुनः मुड़कर शत्रुओं पर टूट पड़ते हैं। राजपूत सैनिक एक ही दौड़ में अपनी परम्परा के अनुसार, शत्रु को विथकित करना चाहते हैं, जैसा कि उन्होने प्रथम युद्ध के समय किया था। परन्तु इस बार उन्हें सफलता नहीं मिली । नयचन्द्रसूरि यह भी संकेत देता है कि राजपूत विशेषतः पाति-पद्धति से परिचित थे, उनका अश्वारोहियों का जत्था
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प्रदर्शन मात्र के लिए था इसीलिए लेखक लिखता है कि पृथ्वीराज जब नट नामक अश्व पर बड़ा तो बजाय द्रुतगति से आगे बढ़ने के वह नाचने लगा। इसी स्थिति में शत्रु दल के किसी सैनिक ने पृथ्वीराज के गले में धनुष की प्रत्यंचा डाली, जिससे उसे नीचे उतरने को बाध्य होना पड़ा। यहाँ अश्वदल के बल और व्यवस्था में राजपूतों का विश्वास नहीं होना स्पष्ट है । शत्रुओं के धनुष भी लेखक अधिक सधे हुए मानता है और संकेत करता है कि द्वितीय तराइन के युद्ध में राजपूत पदाति तथा भारी धनुषों के बल में विश्वास रखते रहे। लेखक की दृष्टि में शत्रुपक्ष की अश्वदल एवं उसके छोटे धनुष और उनका द्रुतगामी वार युद्ध के निर्णायक बने ।
३. हम्मीर महाकाव्य, सर्ग ६, श्लोक ६१-१२५.
४. वहीं, सर्ग १, श्लोक १२६-५०,
५. वही, सर्ग १०, श्लोक २६-६६.
६. वही, सर्ग ११, श्लोक १- २४, २५ -६६.
७. वही, श्लोक ७०-१०३.
८. वही, सर्ग १३, श्लोक १-३८.
नयचन्द्रसूरि इसी प्रकार अपने काव्य के नवम् सर्ग में हम्मीर के समय अलाउद्दीन के सेनानायक उलूगखाँ के रणथम्भौर के आक्रमण का वर्णन देता है। इस आक्रमण के समय राजपूत सेना, जिसका नेतृत्व हम्मीर का सेनानायक भीमसिंह कर रहा था, शत्रु दल पर टूट पड़ती है। सेना का एक साथ दबाव इतना प्रबल था कि शत्रु सेना भाग जाती है। प्रथम तराइन की भांति यहां राजपूत उसी सैन्य प्रणाली से विजयी होते हैं परन्तु इसको पूर्ण पराजय नहीं मानते। विजय के उल्लास में लौटती हुई फौज पर उलूगखाँ प्रत्याक्रमण करता है, जिसके फलस्वरूप भीमसिंह मारा जाता है और उसकी बाकी बची हुई फौज पुनः किले की शरण लेती है। विजयी शत्रुदल का नायक दिल्ली लौट जाता है । इस आक्रमण के वर्णन में भी लेखक उसी राजपूत गतिविधि का वर्णन करता है जिसे पृथ्वीराज ने अपनाया था। लेखक की दृष्टि में भीमसिंह की यही भूल पराजय का कारण थी। फारसी तवारीखों के वर्णन तथा हम्मीर महाकाव्य के वर्णन यहाँ लगभग एक से हैं।
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दसवेंस में हिन्दूवार के युद्ध का वर्णन है जिसमें चारों ओर से चौहान सेना ने उलूगा पर आक्रमण कर दिया। इस बार चौहान विजयी रहे, क्योंकि इनके हमले का दवाब शक्तिसम्पन्न था। परन्तु ग्यारहवें सर्ग के आक्रमण की कहानी पुनः वही है जब अलाउद्दीन ने भेद नीति को अपनाया था। राजपूतों ने अपनी परम्परा के अनुसार दुर्ग के संरक्षा की व्यवस्था की। कई दिनों की रसद, पानी तथा शस्त्रों को दुर्ग में एकत्रित किया गया ।" बारहवें तथा तेरहवें सर्ग में हम्मीर और अलाउद्दीन के दो दिन के संग्राम का वर्णन है। इससे प्रतीत होता है कि राजपूत शत्रुओं के द्वारा अपनाई गई गतिविधि को कुण्ठित करने में क्षमता रखते थे । जहाँ मिट्टी, पत्थर तथा लकड़ी के टुकड़ों एवं पूलियों से दुर्ग की खाइयों को भर कर शत्रु दुर्ग पर चढ़ने की वार से तथा अग्नि के प्रयोग से उनकी व्यवस्था को नष्ट भी कर देते थे।
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१. सब-नागिरी भाग १ ० ४६४ तारीख-ए-फरिश्ता, भाग १ ० १७५ जमीन हिदायत १० डा०
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व्यवस्था करते थे, वहाँ चोहान शस्त्रों के
राजपूतों की इस प्रकार अपनाई गई विधि
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