Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म
श्री जसवन्तलाल मेहता, एडवोकेट (जगदीश मन्दिर रोड, उदयपुर ३१३००१)
मेवाड़ भारतवर्ष के प्राचीनतम स्थानों में है। मेवाड़ में जैनधर्म उतना ही प्राचीन है, जितना उसका इतिहास । अति प्राचीन काल से मेवाड़ प्रदेश जैनधर्म का मुख्य केन्द्र रहा है। अजमेर-मेरवाड़ा के ग्राम बड़ली के शिलालेख में मध्यमिका नगरी का उल्लेख है।' मध्यमिका चित्तौड़ से केवल ७ मील दूर है जो वर्तमान में नगरी के नाम से प्रख्यात है। ब्राह्मी लिपि का वीर सम्बत् ८४ का यह बड़ली शिलालेख भारतवर्ष का प्राचीनतम शिलालेख माना जाता है।
मज्झिमिल्ला एवं मध्यमा शाखा भगवान् महावीर के १०वें पट्टधर सुहस्ति सूरि (वीर संवत् २६०) के शिष्य आर्य सुस्थित सूरि एवं सुप्रतिबुद्ध सूरि (वीर संवत् ३२७) ने करोड़ बार सूरि मन्त्र का जाप कर कोटिक गच्छ निकाला। कोटिक गच्छ की चार शाखायें-उच्चानागरी, विद्याधरी, वयंरी एवं मज्झिमिल्ला निकलीं । सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के शिष्य प्रियग्रन्थसूरि थे. जिनका विहार-क्षेत्र मुख्यतया अजमेर के पास का क्षेत्र रहा। उनसे मध्यमा शाखा निकली। उस काल में आचार्यों के नाम अथवा कार्य के साथ-साथ नगर एवं क्षेत्र के नाम पर भी गच्छ एवं शाखाओं के नाम होने लग गये थे। ऐसी स्थिति में उक्त मज्झिमिल्ला अथवा मध्यमा शाखा का नाम भी इस मध्यमिका नगरी के आधार पर रहा है। उपरोक्त महावीर निर्वाण संवत् ८४ के शिलालेख में इस नगरी का नाम 'मज्झिमिके' अंकित है। अर्ध मागधी में इसे 'मज्झमिया' कहा गया है, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषाओं में 'मझिमिका' कहा गया है । मध्यमिका इसी शब्द का परवर्ती रूप है। इस आधार पर भी मेवाड़ की इस नगरी के नाम पर जैन धर्म की इन शाखाओं का नामकरण होना अथवा यहीं से इनका उद्भव होना मानना उचित प्रतीत होता है।
प्राचीन काल में कई जैन साहित्यकार, दार्शनिक, भक्त एवं लेखक मेवाड़ में हुए। जैनाचार्य देवगुप्तसूरि (७६ वि० पू०) एवं यज्ञदेवसूरि (२३५ वि०) आदि का इस क्षेत्र में विचरण करने का उल्लेख मिलता है । २ वृद्धिवादीसूरि ने कुमुदचन्द्र ब्राह्मण को जीत कर अपना शिष्य बनाया और आचार्य पद दिया जो सिद्धसेन दिवाकर के नाम से प्रख्यात हुए । सिद्धसेन दिवाकर का आविर्भाव काल राजा विक्रमादित्य को प्रतिबोध देने वाले होने से विक्रमी संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य के काल से अधिकांश ग्रन्थों में माना गया है। सिद्धसेन दिवाकर मेवाड़ में दीर्घकाल तक रहे थे। सिद्धसेन दिवाकर ने एक बार चित्तौड़ के एक चैत्य के पास एक विचित्र स्तम्भ देखा जिसमें कई ग्रन्थ संग्रहीत थे, उन्होंने शासनदेव की कृपा से कई ग्रन्थ प्राप्त किये । सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित ग्रन्थों में न्यायावतार, सन्मति प्रकरण मुख्य
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१. नाहर जैन संग्रह भाग १, पृ०६७. २. वीरभमि चित्तौड़ श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १५२. ३. कल्पसूत्र, स्थविरावली.
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