Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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सकते हैं। अभी-अभी हमने ज्ञातासूत्र के मूलपाठ का संशोधन और निर्धारण किया है। उसके कार्यकाल में इस प्रकार की त्रुटियों के पाठ सामने आये । हमने उनके पौर्वापर्य को पकड़कर पाठ की सप्रमाण संगति बैठाने का प्रयास किया है और उनका विमर्श पाद-टिप्पणों में दिया है। उन पाद-टिप्पणों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पाठ-विपर्यय के कितने प्रकार हो जाते हैं।
मैं मानता हूँ कि आगम-सम्पादन में पाठ-निर्धारण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके बिना अर्थ, टिप्पण आदि विपर्यस्त हो जाते है।
पाठ निर्धारण में प्राचीन प्रतियाँ मात्र सहायक नहीं बनती। प्रत्येक शब्द का पौर्वापर्य और अर्थ जान लेना भी पाठ निर्धारण में आवश्यक होता है ।
जो व्यक्ति पौवापर्य या अर्थ की ओर ध्यान न देकर केवल प्राचीन प्रतियों के आधार पर पाठ का निर्धारण करते हैं, वे एक नई समस्या पैदा कर देते हैं । ज्ञातासूत्र के एक उदाहरण से यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है
थावच्चापुत्त बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि के शासन के श्रमण थे। शैलकपुर का राजा शैलक उनके पास गया। धर्म सुना और आगार धर्म स्वीकार करने की बात कही। श्रमण ने उसे व्रतों का निर्देश दिया ।
ज्ञातासूत्र (१।५।४५) के इस प्रसंग का प्रतियों में इस प्रकार उल्लेख है
"तए णं से सेलय राया थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म उवसंपज्जइ।"
इसका अर्थ है
तब शैलक राजा ने थावच्चापुत्त अनगार के पास पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत-इस प्रकार बारह-विध गृहधर्म को स्वीकार किया।
यहाँ मीमांसनीय यह है कि बाईसवें तीर्थंकर के समय में बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म का प्रचार नहीं था। क्योंकि पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष बावीस तीर्थंकरों के शासन में 'चातुर्याम धर्म' का ही प्रचलन होता है। यहाँ जो पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है, वह महावीरकालीन परम्परा का द्योतक है।
पाठ की पूर्ति करने वालों ने इस स्थल पर इतना विचार नहीं किया। उन्होंने औपपातिक सूत्र के अनुसार यहाँ इस सन्दर्भ में पाठ-पूर्ति कर दी। वहाँ पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों के ग्रहण का निर्देश है। वह केवल महावीर के श्रावकों के लिए है, न कि मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरों के श्रावकों के लिए। किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में अरिष्टनेमि के शासन की बात आ रही है, अतः यहाँ 'चाउज्जामियं गिहिधम्म पडिवज्जइ' ऐसा पाठ होना चाहिए।
हमने यह भी देखा है कि कुछेक विद्वानों ने आगम पद्यों में छन्द की दृष्टि से कुछेक शब्दों का हेरफेर कर पद्यों को छन्ददृष्टि से शुद्ध करने का प्रयत्न किया है। वहाँ पर भी बहुत बड़ा भ्रम उत्पन्न हुआ है। प्राकृत पद्यों के अपने छन्द हैं, जो कि अनेक हैं। एक ही श्लोक के चारों चरणों के चार भिन्न-भिन्न छन्द प्राप्त होते हैं । किन्हीं श्लोकों में तीन और किन्हीं में दो छन्द भी प्राप्त होते हैं । ऐसी स्थिति में श्लोक के चारों चरणों में एक ही छन्द कर देना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार का परिवर्तन अनधिकार चेष्टा मात्र है।
पाठ-भेदों के कारणों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं दो आगमों ज्ञाता और आचारांग के कुछेक उदाहरण सप्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ१. ज्ञाताधर्मकथा ८।५६८ विवराणि
के स्थान पर विरहाणि ८।१६५ किच्छोवगयपाणं
किंछपाणोवगयं २।१७ विणित्तए
विहरित्तए
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