Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड
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और स्वयं कनकपुर की ओर चल पड़ा। यात्रा बहुत लम्बी थी। कवि ने मार्ग का वर्णन करते हए अनेक मामिक बातें कही हैं। एक स्थान पर कवि ने कहा
तिणि देसड़े न जाइये, जिहां अपणो न कोय ।
सैरि सैरि हिंडता, बात न पूछे कोय ।। राजा को रास्ते में एक प्रजापति गृहस्थ के यहाँ विश्राम के लिए ठहरना पड़ा। प्रजापति ने विक्रम से यात्रा का उद्देश्य पूछा । राजा ने कहा-लीलावती के रूप की प्रशंसा सुनी है, उसी को देखने जा रहा हूँ। प्रजापति ने कहाराजन् ! उसे तो पुरुष से प्रचण्ड बैर है। वह कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को पास के चामुण्डा के मन्दिर में रात्रि को दर्शनार्थ आती है। वहाँ वह अपनी सखियों के साथ कंचुकी खोलकर नृत्य करती है। यदि वह कंचुकी आपके हाथ लग जाये तो आप लीलावती को प्राप्त कर सकेंगे। राजा विक्रम ने आगे के लिए प्रस्थान किया और अनेक बाधाओं को पार करते हुए चामुण्डा के मन्दिर तक पहुँचे। वहाँ उन्होंने कृष्ण पक्ष की अन्धकारपूर्ण रात्रि में लीलावती को रास करते देखा। उन्होंने चुपके से लोलावती की कंचुकी को उठा लिया। रास समाप्त होने पर लीलावती ने समझा कि उसकी कंचुकी किसी सहेली पास होगी और वह निशंक राजमहल की ओर चली। मार्ग में कंचुकी के सम्बन्ध में जब पूछताछ हुई तो एक सखी ने दूसरी का नाम लिया और दूसरी ने तीसरी का । सभी सहेलियाँ जब कंचुकी का पता नहीं लगा सकी तो वे चामुण्डा के मन्दिर वापस लौटीं। वहाँ विक्रम के पास कंचुकी होने की सूचना मिली तो सभी सहेलियों ने विनम्रता से कंचुकी लौटाने की प्रार्थना की। विक्रम ने इस शर्त पर कंच की देना स्वीकार किया कि वे राजकुमारी से उसका मिलन करायेंगी। सहलियों की सहायता से वह महल में पहुंचा और वैताल की सहायता से चार समस्याएँ कथा के रूप में प्रस्तुत की। अन्त में राजकुमारी को बोलना पड़ा और विक्रम लीलावती प्रणय-बंधन में बंध गये ।
विक्रम चौबोली चउपि' राजस्थानी-गुजराती मिश्रित भाषा में निबद्ध एक महत्त्वपूर्ण रचना है। कवि ने अनेक लोकोक्तियों का प्रयोग कर कथा की रोचकता में वृद्धि की है। यहाँ विक्रम चौबोली का आदि मध्य और अन्त रचना के स्वरूप को समझने की दृष्टि से दिया जा रहा है
॥६० ।। सकल पंडित शिरोमणि पंडित श्री५श्री कांतिविजयगणि गुरुभ्योनमः ॥
आदि भाग
वीणा पुस्तक धारिणी, हंसासन कवि माय । ग्रह ऊगम ते नित नमू, सारद तोरा पाय ॥१॥ दुई पंचासे बँदिउ, कोइ नवो कोठार । बाथां भरी ने काड़तां, किणही न लायो पार ॥२॥ तो हुति नव निधि हुवै, तो हुति सहु सिद्धि । आज ने आगा लगै मुरिख पंडित किध ॥ ३ ॥ तिण तो ने समरि करी, कहि सु विक्रम बात । मैं तौ उद्यम मांडियो, पूरो करस्यो मात ॥ ४॥ मोने किणही न छेतरयो; मैं जगी ठग्यो अनेक । मो कलियुग ने छेतरयो, राजा विक्रम एक ॥ ५॥ चउबोलि राणी चतुर, सीलवती सुभकार । विक्रम परणी जिण विध, कथा कहिस निरधार ॥ ६॥
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