Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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पर पुरुष हे बाई जाणो लसण समान, तेखूणे वैस खाये जाण ।
जिहाँ जावे तिहाँ परगट हुवे ॥ सेठ चारू है बाई चम्पानगर मझार, थे राय तणी पटनार ।
. तरे छिपाया किम छिपे । पण्डिता धाय की प्रत्युक्ति बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है। ऐसा लगता है कि यहाँ कवित्व अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गया हो । आचार्य भिक्ष की रचनाओं में स्थान-स्थान पर उपमा और अलंकार भरे पड़े हैं। उपमा कौशल वही है जो प्रतिपाद्य का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। संस्कृत साहित्य में उपमा के क्षेत्र में कालिदास की कोटि का अन्य कवि शायद आज तक नहीं हुआ हो, किन्तु राजस्थानी काव्य-साहित्य में आचार्य भिक्षु ने विभिन्न स्थलों पर जिस प्रकार के उपमा अलंकार और रूपक प्रयुक्त किये हैं, उनसे काव्य में एक अनुपम सजीवता निखर उठती है। वर्ण्य-वस्तु का वैध एवं स्पष्टव्य सहज उपमाओं से उपमित होकर उनकी प्रखर प्रतिभा की अभिव्यक्ति करते हैं। सभी धर्म-शास्त्रों में नारी के लिए पर-पुरुष एवं पुरुष के लिए पर-नारी त्याज्य माने गये हैं। धर्मशास्त्रों की इस मर्यादा का उल्लंघन करने वाला आत्म-पतन व लोक-निन्दा का भाजन बनता है। पतिव्रत एवं पत्नीव्रत समाज व्यवस्था के न्यूनतम विधान हैं। इनका उल्लंघन करके कोई व्यक्ति अपने पाप को छिपा नहीं सकता। पतिव्रत का खण्डन करने वाली स्त्री के लिए पर-पुरुष को आचार्य भिक्ष ने लहसुन की उपमा दी है। जिस प्रकार लहसुन खाकर कोई भी व्यक्ति किसी भी कोने में छिप जाये, किन्तु उसका मुंह उसकी साक्षी दे ही देगा। लहसुन की वास स्वतः प्रकट हो जाती है, वह छिप नहीं सकती। उसी प्रकार पर-पुरुष का अवैध सम्बन्ध भी किसी प्रकार छिप नहीं सकता। सृष्टि के सहज विधान को उसकी गोपनीयता स्वीकार नहीं है। लहसुन की लोक-जनीन उपमा आचार्य भिक्ष की चमत्कारपूर्ण कुशाग्न मेधा की सूचक है। पण्डिता धाय के युक्तिसंगत तर्क का कोई भी प्रत्युत्तर रानी के पास न था। किन्तु काम परवश व्यक्ति अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए कितना आतुर हो उठता है इसका भी बहुत सुन्दर चित्रण रानी के शब्दों में मिलता हैहोणहार हो होणो ज्यू होसी मोरी माय, सेठ ने ल्यावो वेग बुलाय ।
नहीं तो कण्ठ कटारी पहरी मरू ॥ विकारों की परवशता प्राणी को अपने कर्तव्य से च्युत कर देती है। वह अपने हिताहित को विस्मृत कर लेता है। उसका खाना-पीना भी छूट जाता है। यहाँ तक कि अपनी इच्छा पूर्ति न होने पर मरने को भी उद्यत हो जाता है । मानव-समाज की यह बहुत बड़ी दुर्बलता है कि मनुष्य अपने इष्ट का संयोग न मिलने पर आत्महत्या के लिए उतारू हो जाता है, मस्तिष्क का सन्तुलन तो रहता ही नहीं। भावी में मिलने वाले प्रतिफल की कोई चिन्ता नहीं रहती। वह नियति के धूमिल भविष्य पर अपना सत्त्व छोड़ देता है । धाय भी रानी को समझाकर हार जाती है। व्याकुल होकर रोने लगती हैधाय रोवे हो सुण राणी रा वेण, आसूडा नाखे छ नेण ।
कर मसले माथो धूणती ॥ मोटा कुल में हो इसड़ी हुवे बात, जब किहाँ थी हुवे बात ।
कोई विघ्न होसी इण राज में । पूर्व संच्या हो उदे आया दीसे पाप, उपनों एह सन्ताप ।
सुख माहे दुख उपनो घणो । पण्डिता धाय लाचार होकर हाथ मलती है और शिर धुनती हुई विचार करती है-"हाय ! जब बड़े कुल में भी ऐसी बातें होने लगती हैं, तब दूसरों की तो बात ही क्या ? अथवा इसमें आश्चर्य भी क्या है ? बड़े व्यक्तियों
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