Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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धूर्ताख्यान : पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा
प्रथम आख्यान:
ब्रह्मा के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति । अप्राकृतिक दृष्टि से कल्पित विभिन्न जन्म-कथाएँ। शिव की जटा में गंगा का समाना।
ऋषियों और देवताओं के असम्भव और विकृत रूप की मान्यता । द्वितीय आख्यान :
अण्डे से सृष्टि की मान्यता। अखिल विश्व का देवों के मुख में निवास । द्रौपदी के स्वयंवर में, एक ही धनुष में पर्वत, सर्प, अग्नि आदि का आरोप ।
जटायु, हनुमान आदि की जन्म-सम्बन्धी असम्भव कल्पनाएँ। तृतीय आख्यान :
जमदग्नि और परशुराम-सम्बन्धी अविश्वसनीय मान्यताएँ। जरासन्ध के स्वरूप की मिथक-कल्पना । हनुमान् द्वारा सूर्य का भक्षण । स्कन्ध की उत्पत्ति-सम्बन्धी असम्भव कल्पना । राहु द्वारा चन्द्रग्रहण की विकृत कल्पना ।
वामनावतार और वराहावतार की विकृत मान्यताएँ। चतुर्थ आख्यान :
रावण और कुम्भकर्ण-सम्बन्धी मिथ्या मान्यताएँ। अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र के पान की कल्पना । कद्र और विनता के अस्वाभाविक उपाख्यान ।
समुद्र पर वानरों द्वारा पर्वतखण्डों से सेतु-रचना । पंचम आख्यान:
व्यास ऋषि के जन्म की अद्भुत कल्पना । पाण्डवों की अप्राकृतिक अद्भुत कल्पना । शिवलिंग की अनन्तता की अवधारणा। हनुमान की पूंछ की असाधारण लम्बाई की मान्यता। गन्धारिकावर राजा का मनुष्य-शरीर छोड़कर वन में कुरबक वृक्ष के रूप में
परिणत होने की कल्पना। इस प्रकार, पुराणों की विभिन्न कथा-कल्पनाओं को मिथ्याभ्रान्ति मानकर उनका व्यंग्यात्मक शैली में निराकरण करने में आचार्य हरिभद्र ने अपने अक्खड़ पाण्डित्य और प्रकाण्ड आचार्यत्व का परिचय दिया है । कहना न होगा कि इस अद्भुत व्यंग्यकार ने अपनी हास्य-रुचिर कथाओं के माध्यम से अन्यापेक्षित शैली में असम्भव, मिथ्या, अकल्पनीय और निन्द्य-आचरण की ओर ले जाने वाली बातों का निराकरण कर स्वस्थ, शिष्ट, सदाचार-सम्पन्न और सम्भव आख्यानों का निरूपण किया है।
____ 'धूर्ताख्यान' में सृजनात्मक व्यंग्य-प्रक्रिया अपनाई गई है एवं सप्राण शैली में वैषम्यपूर्ण तथा परस्पर असम्बन्ध तथ्यों का तिरस्कार समाज-निर्माण की दृष्टि से किया गया है। कथा के शिल्प-विधान का चमत्कार तथा दुरूह उलझनभरी सामाजिक विकृतियों का आख्यान-शैली में प्रति-आख्यान इस कथाग्रन्थ के आलोचकों को भी मुग्ध कर देने वाला है । निस्सन्देह, विश्वजनीन कथा-वाङमय का विकासात्मक अध्ययन 'धूख्यिान' जैसी पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा के अध्ययन के बिना अधूरा ही माना जायगा।
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