Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
संवत् १८५० के लिखत में लिखा
"जिण रो मन रजाबंध हुवै, चोखीतरे साधपणौ पलतो जाण तो टोला माही रहिणो । आप में अथवा पेला में साधपणो जांणनै रहिणो। ठागा तूं माहै रहिवा रा अनंत सिद्धां री साख सूं पचखाण छ।”
(२) गण की एकता के लिए आचार्य भिक्षु ने अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया। एकता के अनेक आधारभूत तत्त्व हैं। उनमें पारस्परिक सौहार्द और प्रमोद भावना का विकास भी एक है। इसके लिए आचार्य भिक्षु ने वि० सं० १८५० में लिखा
"किण ही साध आर्यां में दोख देखै तो तत्काल धणी ने कहणी, अथवा गुरां ने कहणी। पिण और कनै न कहिणौ । पिण घणा दिन आडा घालनै दोख बतावै तौ प्राछित रो धणी उहीज छ।"
संघ संघटन का दूसरा आधार है-केन्द्र पर विश्वास, आपसी दलबंदी से मुक्ति। आचार्य भिक्षु ने वि० सं० १८४५ में लिखा
"टोला माहै पिण साधां रा मन भांगनै आप आपर जिले करै तौ महाभारी करमी जाणवौ। विसासघाती जाणवी । इसडी घात पावडी करै । तै तो अनन्त संसार री साइ छै।"
गण में सैकड़ों साधु-साध्वियाँ, श्रावक-श्राविकाएँ होती हैं। उनका सब अपना-अपना विचार होता है। सोचने का ढंग भी भिन्न-भिन्न होता है। ऐसी स्थिति में किसी प्रश्न पर सब एक मत हो जाएँ, यह सम्भव नहीं है। अत: मुमुक्षुओं को क्या करना चाहिए, उसका स्पष्ट निर्देश आचार्य भिक्षु ने वि० सं० १८४५ के लिखत में इस प्रकार किया
_ 'जै कोई सरधा रो, आचार रो सूतर रो अथवा कलपरा बोल री समझ न पड़े तो गुरु तथा भणणहार साधु कहै तै मांण लेणौ । नहीं तो केवली नै भलावणौ । पिण और साधु र संका घालने मन भांगणी नहीं।' इसी को आगे बढ़ाते हुए वि० सं० १८५० में लिखा
'कोई सरधा आचार नौ नवौ बोल नीकले तो बड़ा सू चरचणौ, पिण ओर सून चरचणी। ......"बड़ा जान देव, आप रै हियै बैस मान लैणी, नहीं बैसे तो केवली नै भलावणी, पिण टोला माहै भैद पाडणी नहीं।' इसी प्रसंग में वि० सं० १८५६ में लिखा
___(बोल आदि के विषय में) किण ही नै दोस भ्यास जाये तो बुधवंत साधू री प्रतीत कर लेणी। पिण खांच करणी नहीं।' मर्यादाओं के निर्माण का उद्देश्य कितने सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है
'सिखादिक री ममता मिटावण रौ नै चरित्र चोखो पालण रौ उपाय कीधो छ। विनै मूल धर्म ने न्याय मारग चालण रो उपाय कीधो छ।'
'विकलां नै मूड भेला कर ते शिखा रा भूखा। एक-एक रा अवर्णवाद बोले । फारा-तोरो करें । माहोंमा कजिया, रोड, झगडा करै । एहवा चरित्र देखनै साधां मरजादा बांधी।' साधु-साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार की इयत्ता क्या हो, इसका समाधान करते हुए आपने लिखा
'आयर्यां सं लेवी देवौ लिगार मात्र करणौ नहीं। बडारी आग्न्या विना। आग आयाँ हवै जठ जाणी नहीं । जा तो एक रात रहिणी । पिण अधिको नहीं । कारण पडियां रहैं तो गौचरी रा घर
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