Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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(ख) 'तिण पीपार में एक गैवीराम चारण भगत थयो। ते लोकां में पूजाव। भगतां ने लापसी जीमाव । तिणने लोकां सीखायो-तूं भगतां ने लापसी जीमावै तिण में भाखणजी पाप कहै। जद ते गेवीराम घोटो हाथ में ले गृघरा धमकावतो स्वामीजी कनें आयो। कहै हे भीषण बाबा ! हूँ भगतांने लापसी जीमाऊं सो काइ हुवे ? स्वामीजी बोल्या-लापसी में जैसो गुल घाले जैसी मीठी हुवे। इम सुणाने घणो राजी हुवो। नाचवा लागो। भीखण बाबै भलो जबाव दीधो । लोके बोल्या-भीखणजी पहिला उत्तर जाणे घड़इज राख्यो हुँतों।' --दृष्टान्त २०
(ग) 'घर में छतां कंटालिया में कोई रो गहणो चोर ले गयो । जद बोर नदी सूआंधा कुम्हार ने बोलायो । कुम्हार रे डील में देवता आवतो तिणसू तेहने गहणो बतावा बुलायो। कुम्हार स्वामीजी ने पूछ्यो-भीखणजी अठ किण रो भर्म धरै। जद स्वामीजी इण रो ठागो उवाड़ करवा कह्यो-भर्म तो मजन्यां रोधर है। हिवं रात्रि आंध कुम्हार देवता डील अणायो। घणा लोक देखता हाका करे। न्हाखदे रे न्हाखदे रे । जद लोक बोल्यानाम बतावो । जद बोल्यो-ओ-ओ-ओ-मजन्यो रे मजन्यो गहणो मजन्ये लियो। जद अतीत घोटो लेइ ने उठ्यो । 'मजन्यो तो म्हारा बकरा रो नाम है, म्हारै बकरे रै माथै चोरी देवो । जद लोकां ठागो जाण्यों । स्वामीजी लोकां में कह्यो-थे सुझाता तो गहणो गमायो अन आंधा कानां सू कढावो सो गहणो कठासू आसी?-दृष्टान्त १०६
हाजरी-इसका शाब्दिक अर्थ है-उपस्थिति । श्रीमज्जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु द्वारा रचित मर्यादाओं के आधार पर २८ हाजरियाँ बनायीं। इनमें भिन्न-भिन्न मर्यादाओं का विशेष विवेचन कर उनकी उपयोगिता पर बल दिया गया है। प्रतिदिन एक हाजरी के अनुपात से प्रति मास २८ हाजरियों का वाचन वि० १६१० पौष कृष्णा नवमी रावलियाँ से प्रारम्भ किया। इनमें गण की अखण्डता के सूत्र कौन-कौन-से हैं ? गण और गणी का क्या सम्बन्ध है ? गण से बहिर्भूत या बहिष्कृत व्यक्ति के प्रति गण के सदस्यों का क्या कर्त्तव्य है ? गण और गणी के प्रति समर्पित होने से क्या लाभ है ? आदि-आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
मर्यादाओं और परम्पराओं की स्मृति कराने के लिए इन हाजरियों का अमूल्य योगदान है। हाजरी की इस स्वतन्त्र विधा से श्रीमज्जयाचार्य ने मर्यादाओं को दृढ़ आधार प्रदान किया और गण के सदस्यों को उन मर्यादाओं के पालन में कटिबद्ध किया।
ये सब हाजरियाँ राजस्थानी गद्य में हैं और इनका ग्रन्थमान लगभग ३३०० पद्य परिमाण है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
१. उत्तम जीव हुवै ते अवनीतरी टालोकर री निंदकरी वेमुखरी वेपतारी कलहगारा री संगत न कर करयां समकित चोखी न रहे।
२. आचार गोचर से सावचेत रहिणो । भीखनजी स्वामी रा लिखित ऊपर दृष्टि तीखी राखणी । पासत्था, उसन्नां, कुसीलिया, अपछंदा, टालोकर नी संगति न करणी। कर्म जोगे टोला थी टल, कटणाई में चालणी नहीं आवै, आहारादिक रो लोलपी घणो अथवा चौकड़ी रे वस थइ आग्या पालणी आपरी छांदो रूंधणो- ए दोरो जद वक्रबुद्धि होइ गण बार नीकलै ।
३. मुंहढे तो मीठो बोल । गुरु रा गुण गावै । अनै छान-छाने दगाबाजी करै । इसड़ा अवनीत, दुष्ट, अजोग, प्रत्यनीक, मुखअरी ने भगवान कुह्या कानां री कुत्ती री, भूड सूरा री उपमा दीधी है।
वातिक - इसका अर्थ है-व्याख्या । व्याख्या पद्यात्मक होती है और गद्यात्मक भी । श्रीमज्जयाचार्य ने अनेक आगमों तथा इतर ग्रन्थों पर पद्यात्मक व्याख्याएं लिखीं। किन्तु व्याख्या में जो भी विषय दुरूह ज्ञात हुआ, उस पर आपने वार्तिक लिखे । ये गद्य में है।
आपने भगवती जैसे तात्त्विक जैन आगम को राजस्थानी पद्य में बाँधा और स्थान-स्थान पर राजस्थानी गद्य में बार्तिकाएं लिखीं । आज की भाषा में हम उन्हें 'टिप्पण' (Notes) कह सकते हैं । इन वार्तिकाओं की संख्या ११६० है । इनका अनुष्टुप् ग्रन्थमान ७५०० है ।
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