Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
कुवलयमाला, कथाकोषप्रकरण, कहारयणकोस, आख्यानकमणिकोष, कुमारपालप्रतिबोध आदि कुछ ऐसे कथा काव्य हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
लीलावई का प्रेम कथाकृति में महत्त्वपूर्ण स्थान है । समराइच्चकहा और लीलावईकहा का स्थान एक ही है। दोनों ही अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं । फिर भी दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। कथानक दोनों ही प्रेम से प्रारम्भ होते हैं, परन्तु लीलावई पूर्ण प्रेम-परक कथा का रूप लेकर ही सामने आती है। जबकि समराइच्चकहा प्रेमाख्यान के साथ धमख्यिान की विशेषताओं से भी महत्त्वपूर्ण हैं। हरिभद्रसूरि ने स्वयं ही इसे धर्मकथा के रूप में स्वीकार किया है । उद्योतनसूरि की कुवलयमाला भी अनेक अवान्तर कथाओं से युक्त है। इसके कथानक धर्मपरक और प्रेमरक दोनों रूप हैं। इस काव्य के कथानक कौतूहल के साथ मनोरंजन भी करते हैं।
प्राकृत-कथा-साहित्य और वैचारिकों का दृष्टिकोण
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने प्राकृत-कथा को लोक कथा का आदि रूप कहा है । गुणाढ्य की बहत्कथा लोककथाओं का विश्वकोष कहा जाता है। प्राकृत कथा साहित्य का मूल ध्येय ऐसे कथानकों से रहा है जो प्रभावक हो तथा जीवन में नया मोड़ उत्पन्न कर सके । पालि कथा साहित्य भी विस्तृत एवं विपुलकाय है, परन्तु सभी कथानकों का एक ही उद्देश्य, एक ही शैली एवं एक ही दृष्टिकोण पुनर्जन्म तक सीमित है । उपदेशपूर्ण कथानक होते हुए बोधिसत्व की प्राप्ति के कारण तक पालि ही कथा की सीमा है । जबकि प्राकृत कथा साहित्य जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्ध के साथ सैद्धान्तिक भावों को भी गम्भीरता के साथ प्रस्तुत करता है। प्राकृत कथा का विकास प्रेमकथा या लोककथा के साथ होता चला जाता है। पात्र के चरित्र-चित्रण की विशेषताक्षों के साथ नैतिक, सैद्धान्तिक एवं धार्मिक विचारों को प्रतिपादित करता है।
डा. जगदीशचन्द्र जैन ने प्राकृत जैन तथा साहित्य में कथा साहित्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि जब मानव ने लेखन कला नहीं सीखी थी, तभी से यह कथा-कहानियों द्वारा अपने साथियों का मनोरंजन करता आया है।
प्रो० हर्टले का विचार है कि "कहानी कहने की कला की विशिष्टता प्राकृत कथाओं में पायी जाती है। ये कहानियां भारत के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों के रस्म-रिवाज को पूर्ण सचाई के साथ अभिव्यक्त करती हैं। ये कथाएँ जनसाधारण की शिक्षा का उद्गम स्थान ही नहीं है, वरन् भारतीय सभ्यता का इतिहास भी है।"5
विण्टरनित्स ने लिखा है कि "प्राकृत का कथा साहित्य सचमुच में विशाल है। इसका महत्त्व केबल तुलनात्मक परिकथा साहित्य के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं है, बल्कि साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा हमें इसमें जनसाधारण के वास्तविक जीवन की झाँकियाँ भी मिलती है। जिस प्रकार इन कथाओं की भाषा और जनता की भाषा में अनेक साम्य हैं उसी प्रकार उनका वर्ण्यविषय भी विभिन्न वर्गों के वास्तविक जीवन का चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है । केवल राजाओं और पुरोहितों का जीवन ही इस कथा साहित्य में चित्रित नहीं है, अपितु साधारण व्यक्तियों का जीवन भी अंकित है।
१. श्री मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, कथा खण्ड । २. प्राकृत जैन कथा साहित्य-डा. जगदीशचन्द्र जैन, ३. आन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बरास आफ गुजरात, पृ०८ ४. ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५४५
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