Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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अपभ्रश साहित्य-परम्परा
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, प्राध्यापक, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय, नीमच (म० प्र०)
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय भाषाओं के मूल में सांस्कृतिक विरासत निहित है। भाषाओं के स्वाभाविक प्रवाह में जो भाव समय-समय पर प्रकट होते रहे, वे लेखांकन के अभाव में साहित्यिक रूप ग्रहण नहीं कर सके; किन्तु लोक में प्रचलित अवश्य रहे। संस्कृत के नाटकों के मूल में यही प्रवृत्ति लक्षित होती है। भारतीय साहित्य की मूल परम्परा अभिनय से विभिन्न रूपों से विकसित लक्षित होती है। संस्कृत के नाट्य-साहित्य में लोकप्रचलित प्राकृत भाषाओं का प्रयोग, देशी रागों में गायी जाने वाली ध्र वा-गीतियाँ एवं चर्चरियाँ इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त है। प्राकृत साहित्य की रचना इसी मूल धारा को लेकर हुई है। क्योंकि अभिनय और गेयता-इन दोनों का मूल सम्बन्ध लोकजीवन तथा प्राकृत-साहित्य से रहा है।
वस्तुतः लोक-परम्परा ही भारतीय परम्परा का मूल है। परन्तु आज हमें जो प्राचीन साहित्य उपलब्ध होता है, उसके आधार पर ही हम साहित्यिक परम्परा का स्रोत खोजते हैं। सम्भव है कि संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रश साहित्य के मध्यकालीन (उत्तरकालिक गुप्तकाल) रूप को देखकर वे एक-दूसरे से प्रभावित लक्षित होते हों, किन्तु उनकी भाव-भूमि और रचना का मूल उस आदिकालिक परम्परा में निहित है जो आर्य-संस्कृति व साहित्य की मूल उद्भावक रही है। अतः यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि अपभ्रंश साहित्य की परम्परा अत्यन्त प्राचीन रही है। यह साहित्य अधिकतर प्राकृत साहित्य का अनुवर्ती रहा है और प्राकृत भाषा तथा साहित्य की आनुपूर्वी में गतिशील रहा । इसलिए प्राकृत साहित्य की विभिन्न भावधाराओं एवं शैलियों का स्फीति आकलन आज भी स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। अपभ्रंश साहित्य की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जिनको वह मूल रूप से सहेजे हुए है। साहित्यिक निदर्शन के रूप में अपभ्रंश साहित्य की परम्परा एक ओर महाकवि कालिदास की 'विक्रमोर्वशीय' जैसी प्राचीन रचनाओं में तथा 'गाथासप्तशती' में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, तो दूसरी ओर प्राकृत साहित्य के सुयगडंग, वसुदेवहिण्डी, आवश्यकचूणि तथा आख्यानकमणिकोश में परिलक्षित होती है।
आधुनिक युग में इस परम्परा को खोजने वाले यूरोपीय विद्वानों की शोध-खोज से जो निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। प्राच्यविद्या-जगत् में यह एक नया आयाम था, जिसने जैनधर्म व प्राकृत भाषा एवं अपभ्रंश साहित्य की जानकारी के साथ भाषावैज्ञानिक इतिहास तथा भारतीय आर्य-भाषाओं के विकास के मूल रूप को उजागर किया। किन्तु आज भी इस भाषा और साहित्य के अध्ययन व अनुसन्धान के द्वारा विभिन्न पार्श्ववर्ती क्षेत्रों, साहित्यिक रूपों, भाषागत प्रभेदों, रूप-रचना, संघटन आदि का विश्लेषण व अनुशीलन अपेक्षित है।
जैनविद्या के महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान के रूप में उल्लेखनीय विद्वान् अल्वर्ट वेबर हैं। बम्बई के शिक्षा-विभाग से अनुमति प्राप्त कर डॉ. बूलर ने जिन पाँच सौ ग्रन्थों को बलिन पुस्तकालय में भेजा था, उनका अध्ययन व अनुशीलन कर वेबर कई वर्षों तक परिश्रम कर भारतीय साहित्य (Indishen Studies) के रूप में महान ग्रन्थ १८८२ ई० में प्रस्तुत किया। यह ग्रन्थ सत्रह जिल्दों में निबद्ध है। यद्यपि 'कल्पसूत्र' का अंग्रेजी अनुवाद १८४८ ई० में स्टीवेन्सन द्वारा प्रकाशित हो चुका था, किन्तु जैन आगम ग्रन्थों की भाषा तथा साहित्य की ओर तब तक विदेशी विद्वानों का विशेष रूप से झुकाव नहीं हुआ था। वेबर ने इस साहित्य का विशेष महत्त्व प्रतिपादित कर १८५८ ई० में धनेश्वरसूरि कृत "शत्रुजय माहात्म्य" का सम्पादन कर विस्तृत भूमिका सहित प्रथम बार लिपजिग
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