Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
अपभ्रश चरिउ काव्यों की भाषिक संरचनाएँ 0 डॉ० कृष्णकुमार शर्मा, रीडर, हिन्दी विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर
अपभ्रंश के चरिउकाव्य जहाँ कथारस, रचयिता की धर्मदृष्टि और सन्देश (message) के समन्वित रूप हैं वहाँ भाषा के कलात्मक-प्रयोग के भी निदर्शन है। प्रत्येक काव्य एक सन्देश होता है यह सन्देश मनुष्य की किसी भी वृत्ति से सम्बद्ध हो सकता है। इसी सन्देश के लिए रचयिता एक मोटिफ तलाशता है, वस्तुत: जब कभी कहानी में प्रतिपाद्य को समेटा जाता है तभी उसके अस्तित्व के लिए मोटिफ अपेक्षित हो उठता है। यह मोटिफ ही घटना को सार्थकता के साथ नियन्त्रित करता है, सन्दर्भो को समायोजित करता है। मोटिफ की घटनाएँ लेखक के अनुभव-संसार से गुजरकर, उसकी दृष्टि संवेदना की संवाहक बनकर आती है। कालविशेष और भाषाविशेष में जब एकाधिक रचनाकार एक ही दृष्टि-संवेदना से प्रेरित होते हैं तो एक ही मोटिफ किंचित् अन्तर के साथ सभी में प्रसरित होता दिखाई पड़ता है । अन्तर, इस प्रसरण के बीच में आने वाली घटनाओं का क्रम अथवा बाह्य खप में दिखाई पड़ सकता है। मोटिफ की समरूपता भाषा-संरचना की समरूपता में भी सिद्ध होती है और भाषा-संरचना-प्रयोग की समरूपता संरचना आवर्तन में दृष्टिगोचर होती है । एक रचनाकार ही नहीं, समान सन्दर्भो के आवर्तन में सभी रचनाकार भाषा-संरचना का भी आवर्तन करते हैं । सन्दर्भ और संरचना की यह पारस्परिक प्रतिबद्धता ही शैलीचिह्नक (style marker) की धारणा के मूल में हैं। और शैलीचिह्नकों की समानता के आधार पर ही काव्य-प्रवृत्तियाँ निर्धारित की जाती हैं। अपभ्रंश काव्य के कुछ सर्वनिष्ठ सन्दर्भो और उन सन्दर्भो की अभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त भाषिक संरचना का परीक्षण करने पर यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है, कुछ सन्दर्भ यहाँ दिये जा रहे हैं।
संघाधिपति का आगमन अथवा वर्णन और भगवान का वर्णन अपभ्रंश काव्यों का ऐसा सन्दर्भ है जो प्रत्येक काव्य में आता है। कवि इस सन्दर्भ में कथ्यछाया में अन्तर कर सकता है, बिम्ब और प्रतीक में भी वैविध्य मिलता है पर भाषा-संरचना लगभग एक-सी होती है। सन्दर्भ १ : दिव्य व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह
इस सन्दर्भ में रचनाकारों ने दिव्य-व्यक्ति के दिव्यत्व, श्रेष्ठत्व, संसार से विरागत्व, उसके प्रति पूज्य भाव आदि का वर्णन प्रायः किया है। स्वयंभू के पउमचरिउ में ऋषिसंघ का यह प्रसंग देखें
तहि अवसरे आइउ सवण संघु, पर समय समीरण-गिरि अलंघु ॥ दुम्महमह वम्मह महण सोलु, भयभंगुर भुअणुद्धरण लीलु ॥ अहि विसम-विसम-विस-वेय समणु, खम-दम-णिसेणि किम-मोक्ख-गमणु ॥ तवसिरी वर रामलिगियंगु, , कलि-कलुस-सलिल सोसण पयंगु ॥ तित्थंकर-चरणम्बरूह भमरू, किम मोह महासुर णयर-डमरू ॥
--(पउमचरिउ, संधि २२, ४) उपर्युक्त प्रसंग की भाषिक संरचना हैक्रि० वि० पदबंध+कर्ता प. बं+विशेषण प० ब,+वि-प. बं+-----वि०प० बं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org