Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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ईसा की पहली सदी में आकर जैन धर्म दो सम्प्रदायों में बंट गया-दिगम्बर श्वेताम्बर ११वीं सदी में चालुक्य वंश के गुजरात के राजा सिद्धराज व उसके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को स्वीकार कर राजधर्मं बना दिया और उसका व्यापक प्रचार किया। प्राकृत भाषा के व्याकरण के महाविद्वान तथा अनेक संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता आचार्य हेमचन्द्र सूरि इनके समकालीन थे।
राजस्थान के सभी राज्यों ने करीब १४०० वर्ष तक जैन धर्म को आश्रय व प्रश्रय दिया । चित्तौड़ में कई जैन विद्वान हुए जिनमें आचार्य हरिभद्र सूरि प्रमुख भी थे। मुगल सम्राट् अकबर ने भी जैन विद्वानों का आदर किया व उपदेश सुने । फिर जीवहिंसा रोकने को फरमान भी निकाले ।
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
१६वीं सदी में आकर जैन धर्म में मूर्ति पूजा के विरुद्ध एक सम्प्रदाय और बड़ा हुआ जो साधुमार्गी कहलाता है । १८वीं सदी में तेरापन्थ सम्प्रदाय इसी में से निकला । इस देश की भाषागत उन्नति में जैन आचार्य सहायक रहे हैं । ब्राह्मण अपने धर्म ग्रन्थ संस्कृत में लिखते थे और बौद्ध पालि में, पर जैन मुनियों ने प्राकृत के अनेक रूपों का उपयोग किया और प्रत्येक काल व क्षेत्र में जो भाषा चालू थी उसका उपयोग किया। इस प्रकार आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में जैन मुनियों का अनुपम योगदान है। एक तरह से कह सकते हैं कि आधुनिक भारतीय भाषाओं का आदि साहित्य अधिकतर जैन मुनियों द्वारा लिखा गया है। केवल यही नहीं, संस्कृत में भी व्याकरण, छन्द शास्त्र, कोप और गणित सम्बन्धी जनाचायों के ग्रन्थ मिलते हैं।
आज भी जैन गृहस्थ दान देकर कई सार्वजनिक संस्थाएँ खड़ी कर रहे है और जैन मुनियों का आज भी जन सेवा व साहित्य सेवा में अनुपम योगदान है।
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सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिसु, स्फुरन्ति या काश्चन सूक्तिसम्पदः । तवैव ता:
जगत्प्रमाणं
पूर्वमहार्णवत्थिता
जिनवाक्यविश्र्वः ||
आचार्य सिद्धसेन
जहाँ-जहाँ जो भी सूक्ति सम्पदाएँ स्फुरित हो रही हैं, वे सब निःसन्देह आपके ही पूर्व-प्रवचन-समुद्र से उछलती हुई बंदे हैं।
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